Kabirdas, कबीरदास का जीवन परिचय(संपूर्ण जीवन), भाव पक्ष, कला पक्ष, 50+ दोहे

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Kabirdas, कबीरदास का जीवन परिचय, Kabirdas Biography In Hindi

संत कबीरदास (kabirdas)हिन्दी साहित्य के भक्ति काल के अंतर्गत ज्ञानमार्गी शाखा के कवि हैं । कबीरदास का जन्म सन 1398 में काशी में लहरतारा तालाब के पास हुआ था । इनका पालन पोषण नीरू और नीमा नामक निःसंतान जुलाहा नें किया था।

इनके जन्म के संबंध मे कई मतभेद है कुछ अन्य लोगों का कहना है कि काशी में ब्राह्मण रहता था, उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर स्वामी रामानन्द जी ने उसकी विधवा कन्या को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था । इसके बाद एक पुत्र हुआ, जिसे लोक लाज के कारण लहरतारा नामक तालाब के पास रख दिया ।

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इस पड़े हुए बालक को नीरू नामक एक जुलाहा उठा ले गया और वह बालक अपनी पत्नी को दे दिया । ये नीमा और नीरू ही कबीरदास के माता पिता कहलाए । नीरू और नीमा मुसलमान थे, परंतु कबीर का बचपन से ही हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम था । वे राम नाम जपते थे और माथे पर तिलक लगाया करते थे ।

कबीर दास कि पत्नी का नाम लोई था । इनके पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था । कमाल से कबीर दास प्रसन्न नहीं थे । तब उन्होने लिखा –

बूढ़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल ।

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रामानन्द ने सभी हिंदुओं को ईश्वर भक्ति का अधिकार प्रदान किया था । किन्तु कबीर दास मुसलमान परिवार में पले बढ़े थे, इसलिए रामानन्द जी ने उन्हें अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया था ।

पर कबीरदास(kabirdas) उनके शिष्य बनना चाहते थे । ऐसा कहा जाता है कि एक दिन सवेरा होने से पहले ही कबीर दास पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर जा कर लेट गए । रामानन्द जी वहाँ प्रतिदिन स्नान करने के लिए आया करते थे ।

अंधेरे में उनका पाँव कबीर से छु गया और वो चौक कर राम राम बोल उठे । कबीर ने इस राम नाम को ही गुरु का मंत्र मान लिया और उस दिन से वह अपने आप को रामानन्द का शिष्य मनाने लगे ।

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कबीर (kabirdas)और शेख तकी

मुसलमान, कबीरपंथी शेख तकी को कबीर का गुरु मानते हैं। शेख तकी कबीर के समकालीन थे।  और लगता है कभी कभी उनका मुलाक़ात भी होता था। कबीर ने अपनी कविता में उनके नाम का भी उल्लेख किया है। पर जहां भी कबीर ने शेख तकी का नाम लिया है वहां वैसा आदर  प्रदर्शित करते हुए नहीं लिखा जैसा गुरु के लिए प्रदर्शित करना उचित है बल्कि ऐसा लगता है जैसे शेख तकी को ही शिक्षा देना चाह रहे हो।

कबीर दास रामानंद जी को अपना गुरु मानते थे।  क्योंकि उन्होंने  रामानंद जी का नाम अपनी रचना में बड़े आदर से लिया है । एक जगह तो उन्होंने गुरु को भगवान से भी बड़ा बना दिया है

गुरु गोविंद दोनों खड़ेल, काके लागों पाय।

बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।

कबीरदास(kabirdas) जी ने अपना पूरा जीवन काशी में बिता दिया वे अपने अंतिम समय में मगहर चले गए और वही  सन  1518  में उनकी मृत्यु हो गई।

रचनाएँ

कबीरदास जी का प्रमुख ग्रंथ बीजक है ।

जिसके तीन भाग है

  1. साखी
  2. सबद
  3. रमैनी

अन्य कृतियों में

  1. अनुराग सागर
  2. साखी ग्रंथ
  3. शब्दावली
  4. कबीर ग्रंथावली

कबीरदास का भाव पक्ष

कबीरदास(kabirdas) जी निर्गुण, निराकार ब्रह्म के उपासक थे । उनकी रचनाओं में राम शब्द का प्रयोग हुआ है । निर्गुण ईश्वर की आराधना करते हुए भी कबीरदास महान समाज सुधारक माने जाते है । इनहोने हिन्दू और मुसलमान दोनों संप्रदाय के लोगों के कुरीतियों पर जमकर व्यंग किया ।

कबीरदास का कला पक्ष

सांधु संतों की संगति में रहने के कारण उनकी भाषा में पंजाबी, फारसी, राजस्थानी, ब्रज, भोजपुरी तथा खड़ी बोली के शब्दों का प्रयोग किया है । इसलिए इनकी भाषा को साधुक्कड़ी तथा पंचमेल कहा जाता है । इनके काव्य में दोहा शैली तथा गेय पदों में पद शैली का प्रयोग हुआ है । श्रंगार, शांत तथा हास्य रस का प्रयोग मिलता है ।

कबीरदास का साहित्य में स्थान

कबीरदास(kabirdas) ने अपने उपदेशों में गुरु की महिमा , ईश्वर का विश्वास, अहिंसा तथा सदाचार पर बल दिया है । गुरु रामानन्द के उपदेशों के द्वारा इन्हें वेदान्त और उपनिषद का ज्ञान हुआ । कबीर दास निर्गुण भक्ति भक्ति, धारा में ज्ञान मार्ग के परवर्तक कवि है । इनके मृत्यु के पश्चात कबीर पंथ का प्रचलन प्रारंभ हुआ ।

कबीर के विचार

कबीरदास कहते हैं कि यह संसार माया का खेल है माया के खेल में पढ़कर आत्मा अपने परमात्मा को भूल जाता है। परंतु मायाजाल को तोड़कर परमात्मा से मिले बिना उसे शांति किसी तरह से नहीं मिलती । माया के इस जाल को तोड़ने का उपाय केवल सदगुरू की कृपा से ही मालूम हो सकता है सदगुरू की कृपा बिना परमात्मा का दर्शन होना बहुत कठिन है।

कंचन और कामिनी मनुष्य को माया के फेर में फंसाए रखता है जो इनको छोड़ देता है उसका तो उद्धार हो जाता है पर जो इनके पीछे पड़ा रहता है उसका उद्धार होना बहुत मुश्किल है।

परमात्मा के दर्शन के लिए सच्चे प्रेम की आवश्यकता होती है जिसके हृदय में यह प्रेम जाग उठता है उसे परमात्मा के दर्शन किए बिना कभी चैन नहीं पड़ सकता।

इस यौवन और वैभव का अभिमान मनुष्य को कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह नश्वर है समान लोगों की तो बात ही क्या बड़े-बड़े सम्राटों का वैभव भी टिक नहीं सका।

कबीर कहते हैं कि मनुष्य को सबसे बड़ा लाभ मनुष्य जन्म पाकर, आत्मा किसी प्रकार परमात्मा के दर्शन कर सकें।

कबीर के उपदेश

कबीर ने कविता काव्य का चमत्कार दिखाने के लिए नहीं लिखा, उन्होंने तो अपने हाथ से कभी कागज और स्याही छूने की भी कोशिश नहीं की बाद में उनके शिष्य धर्मदास ने उनकी कविता का संग्रह कर दिया।

कबीर दास ने जो कहा वह अपने भक्ति संबंधी और ज्ञान संबंधी विचारों को प्रकट करने के लिए कहा, कबीर अपने समय के महान समाज सुधारक थे ।  इसलिए उनकी रचनाओं में उपदेश अधिक होने का स्वभाविक ही है कबीर की रचनाएं अधिकांश उपदेश प्रधान और खंडन प्रधान मिलता है । उन्होंने जहां तहां अपने विरोधियों की खिल्ली भी उड़ाई है उनकी कुछ रचनाओं में हठयोग के परिभाषिक शब्द और हठयोग की साधना पद्धतियों का भी वर्णन मिलता है । इस प्रकार की रचनाएं उन्होंने लोगों पर यह रौब जताने के लिए लिखी होंगी कि वह भी योग और साधना की बातों को खूब अच्छी तरह समझते हैं।

कबीर दास के दोहे, kabir das ke dohe

kabir das ke dohe

पतिवरता मैली भली, काली, कुचिल, कुरूप ।

पतिवरता की रूप पर , बारों कोटि स्वरुप ।।

अर्थ – संत कबीर दास जी कहते हैं कि पतिव्रता मैली ही अच्छी, काली मैली- फटी साडी पहने हुए और कुरूप तो भी उसके रूप पर मै करोड़ों सुंदरियों को न्योछावर कर देता हूँ ।

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय ।

बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दिया दिखाय।।

अर्थ – गुरु और गोविन्द दोनों ही सामने खड़े है, मै दुविधा में पड़ गया हूँ कि किसके पैर पकड़ू । सद्गुरु पर न्यौछावर होता हूँ कि, जिसने गोविन्द को सामने खड़ाकर दिया, गोविन्द से मिला दिया ।

परबति परबति मैं फिरया, नैन गँवायें रोइ ।

सो बूटी पाऊं नहीं , जातै जीवनी होई ।।

अर्थ– संत कबीर दास जी कहते हैं की- एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर मैं घूमता रहा, भटकता फिरा, रो- रोकर ऑंखें भी गवां दी । मगर वह संजीवनी बूटी कहीं नहीं मिला, जिससे कि जीवन यह जीवन बन जाय।

जब मै था तब  हरि नहीं, अब हरि हैं मै नाही ।

सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहि।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते है की जब तक  यह मानता था कि मैं हूं तब तक मेरे सामने हरि नहीं थे और अब हरि आ गए हैं तो मैं नहीं रहा अंधेरा और उजाला एक साथ ,एक ही समय,  कैसे रह सकते हैं फिर  वह दीपक अंतर में था।

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कबीरदास जी की अन्य रचनाएं

  • साध का अंग
  • घूँघट के पट
  • हमन है इश्क मस्ताना
  • सांच का अंग
  • सूरातन का अंग
  • रस का अंग
  • संगति का अंग
  • झीनी झीनी बीनी चदरिया
  • रहना नहिं देस बिराना है
  • साधो ये मुरदों का गांव
  • विरह का अंग
  • रे दिल गाफिल गफलत मत कर
  • गुरुदेव का अंग
  • नीति के दोहे
  • बेसास का अंग
  • सुमिरण का अंग
  • केहि समुझावौ सब जग अन्धा
  • मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा
  • भजो रे भैया राम गोविंद हरी
  • का लै जैबौ, ससुर घर ऐबौ
  • सुपने में सांइ मिले
  • मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै
  • तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के
  • मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै
  • साध-असाध का अंग
  • दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ
  • माया महा ठगनी हम जानी
  • कौन ठगवा नगरिया लूटल हो
  • सुमिरण का अंग
  • मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में