
सूरदास हिन्दी के मुक्तक काव्य लिखने वाले कवियों में सर्वश्रेष्ठ माने जाते है । सुंदर पद और गीत सूरदास ने लिखे है , वैसे हिन्दी में किसी कवि ने नहीं लिखे है प्रबंध काव्य लेखकों में तुलसीदास जी बेजोड़ है और मुक्तक काव्य लेखक में सूरदास अनुपम है ।
सूरदास हिन्दी की सगुण भक्ति धारा के कृष्ण भक्ति के कवियों में एक थे । सूर दास के भक्ति श्रंगार और वात्सल्य से भरे हुए पद आज भी काव्य प्रेमियों के क जीहवा पर विद्यमान है। संगीत प्रेमियों मे जितना आदर सुर के पदों का हुआ है उतना आदर किसी का नहीं हुआ है।
सूरदास का जीवन परिचय
सूरदास (surdas)जी का जन्म दिल्ली के पास वल्लभगढ़ से दो मील दूर सीही नामक स्थान पर सन 1478 में हुआ था । कुछ लोग इन्हें चंदबरदाई का वंशज ब्रम्हा भट कहते है । इनकी एक पुस्तक साहित्य लहरी में सूर दास गौघाट नामक स्थान में एक साधु के रूप में रहा करते थे । गौघाट रुनकता नामाक गाँव में है । जिससे यह अनुमान होता है कि यह चंद के वंशज थे।
कहा जाता है इनके पिता का नाम हरीशचंद्र था सूरदास जी के छह भाई और थे। वे मुसलमानों के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए. सूरदास जी नेत्रहीन तो थे ही जब यह अपने भाइयों की खोज में निकले तो रास्ते में चलते चलते एक कुएं में गिर पड़े कुएं में यह 7 दिन तक रहे और सातवें दिन कृष्ण जी ने ने दर्शन दिया और कहा कि कोई वर मांग लो सूरदास जी ने यह वर मांगा कि जिन नेत्रों से मैंने आपको देखा है उनसे अब और किसी को ना देखूं कहा जाता है कि इस कारण उनके नेत्रों की ज्योति फिर समाप्त हो गई।
एक कथा के अनुसार यह भी है कि सूरदास (surdas)जी एक सुंदर युवती पर मुग्ध हो गए थे और वह यह सोच कर कि इसके कारण उनके नेत्र हैं। उन्होंने अपने नेत्र फुडवा लिए थे । कुछ अन्य विद्वान इन बातों पर विश्वास ना कर इन्हें बचपन से ही अंधा मानते हैं पर इनकी रचनाओं में उनकी बाल लीला तथा किशोरावस्था की प्रेम लीलाओं का ऐसा जीता जागता सजीव वर्णन मिलता है जिसे बिना अपनी आंखों से देखें लिख पाना किसी भी कवि के लिए संभव नहीं है इसलिए यह तो समझना ही चाहिए कि सूरदास जी जन्म से अंधे नहीं थे।
सूरदास (surdas)जी गौघाट नामक स्थान में एक विरक्त साधु के रूप में रहा करते थे। गौघाट रुनकता नामक गांव के पास है कुछ समय के बाद उनकी भेंट महाप्रभु वल्लभाचार्य से हुई वल्लभाचार्य जी ने पुष्टीमार्ग नामक संप्रदाय का प्रारंभ किया था।
उन्होंने गोवर्धन पर श्रीनाथजी का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया था सूरदास जी से मिलने पर वल्लभाचार्य ने उनके अपने बनाए हुए पदों को सुना और सुनकर बहुत खुश हुए उन्होंने सूरदास जी को अपना शिष्य बना लिया और उनकी भक्ति तथा काव्य कौशल को देखकर श्री नाथ के मंदिर में कीर्तन की सेवा का काम सूरदास जी को दे दिया।
वल्लभाचार्य ने सूर दास जी को आदेश दिया कि श्रीमदभागवत की कथा को हिंदी के पद में लिखो जो गाया जा सके सूरदास जी सूरसागर श्रीमद्भागवत की कथाओं पर ही आधारित है, इसमें दशम स्कंध की कथा ही विस्तार से कही गई है, बाकी स्कंध को संक्षेप में डाल दिया गया है सूरदास जी की मृत्यु 1583 में पारसौली ग्राम में हुआ था ।
सूरदास जी की रचनाएं
- सूरसागर
- सुर सारावली
- साहित्य लहरी
- नल दमयंती
पर इन सभी में सूरसागर ही विशेष महत्व का ग्रंथ है कहा जाता है कि इसमें सवा लाख पद थे परंतु आजकल केवल 4 या 5000 पद ही प्राप्त होते हैं इसमें श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध की कथा का विस्तार से वर्णन है सुर सारावाली और साहित्य लहरी दोनों ग्रंथ प्रमाणित नहीं माने जाते।
इनके कुछ पद सूरसागर में भी पाए जाते हैं इसी प्रकार नल दमयंती और दयालु नामक ग्रंथ भी एक तो उपलब्ध ही नहीं होते और दूसरे यह भी संदिग्ध है कि उनकी रचना सूरदास ने की भी थी या नहीं।
सूरदास जी की काव्य की विशेषता
सूरदास(surdas) जी ने कोई प्रबंध काव्य नहीं लिखा । प्रबंध काव्य आदि से लेकर अंत तक एक ही कथा रूप में चलती जाती है सूरसागर में ऐसी कोई कथा नहीं है उसके सभी पद अपने आप में स्वतंत्र और पूर्ण हैं यह ठीक है कि इन पदों में से बहुत सी छोटी-छोटी कथाओं का वर्णन है।
वे अपने पदों में नए-नए प्रसंगों की कल्पना की है और वे प्रसंग ऐसे हैं जो पाठक के हृदय को मुक्त कर लेते हैं फिर भी इनमें प्रबंध काव्य की रोचकता नहीं है इनका हर पद रस से भरा हुआ प्याला है
बहती हुई अखंड रस की धारा नहीं। सूर दास जी ने कुछ दृष्टिकूट वाले पद लिखे हैं जिनमें किसी एक ही शब्द को लेकर उसका अनेक अर्थों में प्रयोग करके चमत्कार प्रदर्शित किया गया है।
कुछ पदों में लुप्त मात्राओं का भी समावेश किया गया है इस प्रकार के पदों का अर्थ समझ पाना कई जगह बहुत कठिन हो जाता है। परंतु ऐसे पद संख्या में बहुत थोड़े हैं और सूर दास जी का अधिकांश रचना माधुर्य और रस से भरा हुआ है सूरदास जी ने अपनी रचनाओं में सभी रसों का थोड़ा बहुत वर्णन किया है परंतु उनकी रचनाओं का मुख्य भाग श्रृंगार और वात्सल्य को लेकर ही बना है वात्सल्य और श्रृंगार को लेकर उन्होंने जैसी उत्कृष्ट रचना की है वैसी हिंदी में किसी कवि ने नहीं की
उनकी रचना में जीवन की निरंतर बदलती जाने वाली अनेक प्रकार की परिस्थितियों का चित्रण नहीं है उन्होंने केवल श्रृंगार वात्सल्य वैराग्य तक ही अपने आप को सीमित रखा। फिर भी यह बात निश्चित है कि वह इन क्षेत्रों में अन्य कवियों की अपेक्षा बहुत आगे बढ़े हुए है । वात्सल्य और श्रृंगार में उनसे कोई टक्कर नहीं ले सकता। वैराग्य संबंधी उनकी रचनाएं तुलसी की रचनाओं के समान ही उत्कृष्ट है।
सूरदास(surdas) जी की रचनाओं में कृष्ण के बाल्यकाल तथा युवा अवस्था की प्रेम लीलालों के अनेक सुंदर चित्र प्रस्तुत हुए हैं। सूर दास ने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का चित्रण किया है प्रेम की शिक्षा मनोविज्ञान का चित्रण करने में केवल जायसी ही सूरदास के समीप पहुंच सकते हैं परंतु दोनों की शैली बिल्कुल अलग है।
सूरदास जी का वात्सल्य
कृष्ण नंद के घर पर रहकर बड़े हुए थे। बढ़ते हुए बालक की मनोहर गति विचित्र भाव भंगियों और भोली तथा प्यारी बातों का सूर दास ने बड़ा सुंदर वर्णन किया है। यह वही बातें हैं जो प्रत्येक बालक बड़ा होते समय करता है और जिन्हें लगभग सभी माता-पिता देखते हैं और देखकर प्रसन्न होते हैं।
कृष्ण का घुटनों के बल चलना खड़े होकर लड़खड़ाते हुए चलने का प्रयत्न करना तरह-तरह के छोटे-छोटे हट और शरारतों का सूरदास ने ऐसा मानोहारी वर्णन किया है कि कोई भी बात छूट नहीं पाई है मक्खन चुरा कर खा लेना कृष्ण को बड़ा प्रिय था । अपने ही घर में नहीं बल्कि पड़ोस की गोपियों के यहां से भी वह माखन चुरा लाते थे। पकड़े जाने पर ऐसे बहाने बनाते थे कि उन्हें पकड़कर माँ यशोदा के पास लाने वाली गोपियों को भी हंसी आ जाती थी।
तथा कृष्ण के बड़े होने पर उनके ग्वालो के साथ गाय चराने के लिए बन में जाने लगे। वह सभी ग्वालो के साथ खेलते और कभी उनसे झगड़ते कभी ग्वाल उन्हें छेड़ते कहते तुम नंद के बालक नहीं हो नंद और यशोदा दोनों गोरे हैं और तुम हो काले, तुम्हें तो उन्होंने कहीं से खरीदा है।
कृष्ण और बड़े हो गए उनकी भोली बातें अब शरारत का रूप धारण करने लगी। कंकड़ फेंक कर किसी ग्वालिन की दही की मटकी फोड़ देना, नदी में स्नान करती हुई गोपियों के वस्त्र छुपा देना जिनके लिए यशोदा को आए दिन शिकायत सुनने पड़ते थे।
कालीनाग का दमन, मस्त बैल को नाथा ना गोवर्धन धारण तथा अन्य कई सारे काम किशोरावस्था में कृष्ण ने किए जिससे वह गोकुल निवासियों के प्रेम के पात्र बन गए थे।
सुर का श्रंगार वर्णन
किशोर अवस्था समाप्त होने के बास कृष्ण युवा हो गए । जिन गोपियों के साथ वे बचपन में खेलते थे, वे युवा हो गए थे । बचपन का स्नेह अब प्रेम में बदल गया था । जिन गोपियों से वे निसंकोच मिलते थे, वे अब उनसे मिलने में सकुचाने लगी और साथ ही मिलने के लिए बेचैन होने लगी । प्रेम की सैकड़ों दशाओं को सूर दास ने बड़े विस्तार से लिखा है । जिसमें राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन है ।
कबीर तथा उनके अनुयायी निर्गुण भक्ति का प्रचार कर चुके थे और उनका विरोध सगुण भक्ति के प्रचारकों से होता होगा । उनके मुक़ाबले में अपने भ्रमरगीत का प्रसंग लाना पड़ा । भ्रमरगीत द्वारा सूर ने निर्गुण भक्ति कि अपेक्षा सगुण भक्ति को अधिक अच्छा कर दिखाया ।
भक्ति का स्वरूप
सूरदास(surdas) जी कि भक्ति सत्य भाव का था । वे अपने आप को कृष्ण का सखा मानते है। इस प्रकार कि भक्ति वल्लभाचार्य जी के पुष्टि मार्ग का परिणाम था ।
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