kabir das ke dohe , संत कबीर दास के दोहे अर्थ सहित , kabir das ke dohe in hindi , Kabir ke dohe
1
कबीर सों धन संचिये, जो आगै कूं होइ ।
सीस चढ़ावें पोटली, ले जात न देख्या कोई ।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं – उसी धन का संचय करों जो आगे आपके काम आयें । तुम्हारें इस धन में क्या रखा है । धन की गठरी सिर पर रखकर किसी को भी आज तक ले जाते नहीं देखा ।
2
पोथी पढ़ पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय ।
एकै आषिर पीव का, पढ़ै सो पंडित होइ ।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते है – पोथी पढ़ – पढ़कर दुनियां मर गई, मगर कोई पंडित नहीं हुआ । पंडित तो वही हो सकता है, जिसने प्रभु का केवल एक अक्षर पढ़ लिया ।
3
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर ।
तेरा तुझकों सौपता , क्या लागै है मोर ।।
अर्थ– संत कबीर दास जी कहते है की मेरा मुझ में तो कुछ भी नहीं है । जो कुछ भी है वह सब तेरा ही है तब तेरा ही वस्तु तुझे सौपने में मेरा क्या लगता है क्या अप्पत्ति हो सकती है मुझे ।
कलियुग पर दोहे (kabir das ke dohe )
4
कलि का स्वामी लोभियां, पीतलि धरी खटाइ।
राज – दुबारां यों फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाई।।
अर्थ – कबीर कहते है की कलियुग के स्वामी बड़े लोभी हो गयें है, और उनमे विकार आ गया है जैसे पीतल के बर्तन में खटाई रख देने से । ये राज – द्वारों पर लोग मान सम्मान पाने के लिए घूमते रहते है, जैसे खेतों में बिगड़ैल जानवर घुस जाता है ।
5
कलि का स्वामी लोभियां , मनसा धरी बधाई।
दैंहि पईसा ब्याज कौ, लेखां करतां जाइ।।
अर्थ– कबीर दास जी कहते हैं की कलियुग का व्यक्ति कैसा लालची हो गया है । लोभ बढ़ता ही जाता है इसका और ब्याज पर पैसा उधार देता है और लेखा जोखा करने में सारा समय नष्ट कर देता है ।
6
कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ।
नैनूं रमैया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ।।
अर्थ – कबीर कहते हैं आँखों में काजल कैसे लगाया जाय , जबकि उनमें सिंदूर जैसी रेखा दिखाई देने लगा हैं । मेरा राम नैनों में रम गया हैं, उनमें अब किसी और को बसा लेने की जगह नहीं हैं ।
7
कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो मीत।
जिन दिलबाँध्या एक सूं, ते सुखु सोबै निचींत।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कलियुग में आकर हमने बहुतों को मित्र बना लिया हैं । पर जिसने अपने दिल को एक से ही बाँध लिया हैं वहीं व्यक्ति निश्चिंत सुख कि नींद सो सकता हैं ।
कबीर दास के दोहे (kabir das ke dohe) पतिव्रता पर
8
पतिवरता मैली भली, काली, कुचिल, कुरूप ।
पतिवरता की रूप पर , बारों कोटि स्वरुप ।।
अर्थ – संत कबीर दास जी कहते हैं कि पतिव्रता मैली ही अच्छी, काली मैली- फटी साडी पहने हुए और कुरूप तो भी उसके रूप पर मै करोड़ों सुंदरियों को न्योछावर कर देता हूँ ।
9
पतिबरता मैली भली, गले काँच को पोत।
सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि की जोत।।
अर्थ – पतिव्रता मैली ही अच्छी, जिसने सुहाग की नाम पर काँच की कुछ गुरिये पहन रखे हैं । फिर भी अपनी सखी सहेलियों की बीच वह ऐसे चमक रही हैं जैसे आकाश में सूर्य और चंद्र कि ज्योति जगमगा रही हो ।
10
ग्यानी मूल गँवाईंयां, आपण भये करता ।
ताथैं संसारी भला, मन में रहै डरता ।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते है की ज्ञानी व्यक्ति अंहकार में पड़कर अपना मूल गँवा दिया है । और वह मानाने लगा है कि मै सबका करता धर्ता हूँ । उससे तो संसारी आदमी ही अच्छा है, क्योंकि डरकर तो चलता है कि कहीं भूल तो न हो जाए ।
kabir das ke dohe कबीर दास के दोहे गुरु पर
11
सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार ।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार।।
अर्थ – अंत नहीं सद्गुरु की महिमा का, और अंत नहीं उसके उपकारों का, मेरे अनंत लोचन खोल दिए, जिनसे निरन्तर को मै अनंत देख रहा हूँ ।
12
बलिहारी गुरु आपणै, धौहाड़ी कै बार ।
जिनि मनिष तैं देवता, करत न लागी बार ।
अर्थ – हर दिन कितनी न्यौछावर करूँ अपने आपको सद्गुरु पर, जिन्होंने एक पल में ही मुझे मनुष्य से परमदेवता बना दिया, और ताकतवर हो गया मै।
13
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय ।
बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दिया दिखाय।।
अर्थ – गुरु और गोविन्द दोनों ही सामने खड़े है, मै दुविधा में पड़ गया हूँ कि किसके पैर पकड़ू । सद्गुरु पर न्यौछावर होता हूँ कि, जिसने गोविन्द को सामने खड़ाकर दिया, गोविन्द से मिला दिया ।
14
ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाब।
दुन्यू बूड़े धार मै, चढ़ी पाथर की नाव ।।
अर्थ – कबीर कहते है- लालच का दाँव दोनों पर चल गया, न तो सच्चा गुरु मिला और न शिष्य जिज्ञासु बन पाया । पत्थर की नाव पर चढ़कर दोनों ही मझधार में डूब गये।
15
पीछै लगा जाइ था , लोक बेद के साथि।
आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि।।
अर्थ – मै भी औरों की ही तरह भटक रहा था, लोक – देव की गलियों में । मार्ग में गुरु मिल गये सामने आतें और ज्ञान का दीपक पकड़ा दिया मेरे हाथ में । इस उजेलें में भटकना अब कैसा ।
kabir das ke dohe कबीर दास के दोहे
16
कबीर सतगुरु ना मिल्या , रही अधूरी सीख।
स्वांग जती का पहरि करि, घरि घरि मांगें भीख ।।
अर्थ – कबीर कहते है – उनकी सीख अधूरी ही रह गयी कि जिन्हें सद्गुरु नहीं मिला । सन्यासी का भेष बनाकर घर-घर भीख मांगते फिरते हैं वे।
17
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिए जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ।।
अर्थ – यह शरीर तो विष की लता हैं, विषफल ही फलेंगें इसमें । और गुरु तो अमृत की खान हैं । सिर चढ़ा देने पर भी सद्गुरु से भेंट हो जाय, तो भी यह सस्ता होगा ।
18
सतगुरु हम सूं रीझि करि, एक काहा परसंग।
सीस दिये जो गुरु मिलै , तो भी सस्ता जान ।।
अर्थ – एक दिन सद्गुरु हम पर प्रसन्न होकर एक प्रसंग कह डाला, रस से भरा हुआ । प्रेम का बादल बरस उठा, अंग – अंग भीग गया उस वर्षा में ।
19
भगति भजन हरी नावं हैं , दूजा दुःख अपार ।
मनसा बाचा क्रमना, कबीर सुमिरन सार ।।
अर्थ – हरि का नाम स्मरण ही भक्ति हैं और वही भजन सच्चा हैं । और भक्ति के नाम पर सारी साधनाएं दिखावा हैं, और अपार दुःख का कारण भी । पर स्मरण होना चाहिए मन से, बचन से और कर्म से, और यही स्मरण का सार है ।
20
कबीर कहता जाता हूँ , सुणता हैं सब कोई ।
राम करें भल होइगा , नहितर भला न होई।।
अर्थ – मै हमेशा कहता हूँ, रट लगाए रहता हूँ, सब लोग सुनते भी रहते हैं – यही कि राम का स्मरण करने से ही भला होगा, नहीं तो कभी भला नहीं हो सकता । पर राम का स्मरण ऐसा कि वह रोम – रोम में रम जाय ।
कबीर दास के दोहे
21
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूं।।
अर्थ – तू, ही हैं, तू ही हैं यह यह करते – करते मै तू हो गयी हूँ मुझमें कहीं भी नहीं रह गयी । उसपर न्यौछावर होते होते मै समर्पित हो गयी हूँ। जिधर भी नज़र जाता हैं उधर तू ही तू दिख रहा हैं।
22
कबीर सूता क्या करै, काहे न देखै जागि।
जाको संग तै बीछुइया, ताही के संग लागी ।।
अर्थ – कबीर दास जी इस दोहे में अपने आप को चेता रहे हैं, अच्छा हो कि दूसरे लोग भी समझ जाये । अरे, सोया हुआ तू क्या कर रहा हैं, जाग जा और अपने मित्रों को देख, जो जाग गये हैं । सफर लम्बा हैं, जिनका साथ बिछड़ गया हैं और तू उनसे पीछे हो गया हैं । उनके साथ तू फिर से लग जा ।
23
जिहि घटि प्रीति न प्रेम- रस, फुनि रसना नहीं राम ।
ते नर इस संसार में , उपजी खये बेकाम ।।
अर्थ– जिस घट में न तो प्रीति हैं और न ही प्रेम का रस । और जिसकी बोली में राम नाम नहीं हैं वह इस दुनिया में बेकार ही पैदा हुआ हैं और वह धीरे धीरे बर्बाद हो जायेगा ।
कबीर दास के दोहे प्रेम पर ( kabir das ke dohe)
24
कबीर प्रेम न चषिया, चषि न लीया साब ।
सुने घर का पांहुणां, ज्यूँ आया त्यूं जाब ।।
अर्थ – कबीर धिक्कारते हुए कहते हैं – जिसने प्रेम का रस नहीं चखा, और चखकर उसका स्वाद नहीं लिया, उसे क्या कहा जाय। वह तो सूने
घर का मेहमान हैं, जैसे आया था वैसे ही चला गया ।
25
राम पियारा छाड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्या केरा पूत ज्यूँ , कहै कौन सु बाप ।।
अर्थ – प्रियतम राम को छोड़कर जो दूसरे देवी देवताओं को जपता हैं, उनकी आराधना करता हैं उनकों क्या कहा जाय । वेश्या का पुत्र किसे अपना बाप कहें । अनन्यता के बिना कोई गति नहीं ।
कबीर के दोहे राम पर (kabir das ke dohe)
कबीर दास के दोहे
26
लुटि सकै तो लुटियाँ, राम- नाम हैं लुटि ।
पीछै हो पछिताहूगे, यह तन जैहे छूटि।।
अर्थ – अगर लूट सको तो लूट लो, जितना मन हो लूट लो, यह राम नाम कि लूट हैं । न लुटोगे तो फिर बाद में पछताओगे, क्योकि तब यह शरीर छूट जायेगा ।
27
लंबा मार्ग, दूरि घर, विकट पंथ, बहु मार ।
कहौं संतों, क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरि दीदार ।।
अर्थ – रास्ता लंबा हैं , और वह घर बहुत दूर हैं, जहाँ पहुँचना हैं । लंबा ही नहीं रास्ता बहुत ख़राब हैं । कितने बटमार (चोरी करने वाले) वहाँ पीछे लग जाते हैं । संत भाइयों , बताओं तो कि हरि का दुर्लभ दीदार कैसे मिल सकता हैं ।
28
कबीर राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाई।
फूटा नग ज्यूँ जोड़ी मन , संधे संधि मिलाई।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि – अमृत जैसे गुणों को गाकर तू अपने राम को रिझा लें । राम से तेरा मन बिछड़ गया हैं , उससे वैसे ही जा कर मिल जैसे कोई फूटा हुआ नग संधि से संधि मिलाकर एक कर लिया जाता हैं ।
कबीर दास के दोहे
29
अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसौ कहियाँ ।
कै हरि आया भाजिसी , कै हरि ही पास गया ।।
अर्थ – कबीर दास जी इस दोहे में कहते हैं कि संदेसा भेजते – भेजते मेरे मन जाने का नहीं हैं । अंतर का कसक होने का नाम नहीं ले रहा हैं । यह कि प्रियतम मिलेगा या नहीं, और कब मिलेगा यह अंदेसा दूर हो सकता हैं केवल दो तरीके से – या तो हरि स्वयं आ जाये , या फिर मै किसी तरह हरि के पास पहुँच जाऊँ।
30
यहु तन जालों मसि करों , लिखो राम का नाउँ ।
लेखणी करूँ करांक की, लिखी- लिखी राम पठाउँ।।
अर्थ – कबीर दास जी इस दोहे में कहतें हैं , इस तन को जलाकर स्याही बना लूंगा, और जो कंकाल रह जायेगा, उसका लेखनी तैयार कर लूंगा । उससे प्रेम का पत्र लिख – लिख कर अपने प्यारे राम को भेजता रहूँगा ऐसा रहेगा मेरा संदेश।
कबीर दास के दोहे
31
बिरह- भुवंगम तन बसै, मन्त्र न लागै कोई ।
राम- बियोग ना जिबै जिबै तो बौरा होई ।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं की विरह का यह भुजंग अंतर में बस रहा हैं , डसता रहता हैं हमेशा, कोई भी मन्त्र काम नहीं करता हैं । राम का वियोगी जीवित नहीं रहता हैं , और जीवित रह भी जाय तो बावला रह जाता हैं ।
32
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ।।
अर्थ – शरीर यह रबाब सरोद बह गया हैं । एक – एक नस तांत हो गया हैं और बजाने वाला कौन हैं इसका । वही विरह , इसे या तो वह साई सुनता हैं, या फिर बिरह में डूबा हुआ चित्त।
33
अंषडियां झाई पड़ी, पंथ निहारि – निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड़ या, राम पुकारि – पुकारि ।।
अर्थ – संत कबीर दास जी कहतें हैं कि बाट जोहते – जोहते आँखों में झांई पड़ गया हैं । राम को पुकारते – पुकारते जीभ में छाले पड़ गएँ हैं ।
34
इस तन का दीवा करौं, बाती मेल्यूं जीव ।
लोही सींची तेल ज्यूँ, कब मुख देखौं पीव ।।
अर्थ – संत कबीर दास जी कहतें हैं कि इस तन का दिया बना लूँ , जिसमें प्राणों कि बत्ती हों और तेल कि जगह तिल- तिल जलता रहे रक्त का एक एक बून्द । कितना अच्छा कि उस दिए में प्रियतम का मुखड़ा दिखाई दे जाए ।
35
कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त ।
बिन रोयां क्यूँ पाइएं, प्रेम पियारा मित्त।।
अर्थ – संत कबीर दास जी कहतें हैं कि वह प्यारा मित्र बिन रोये कैसे किसी को मिल सकता हैं । रोने – रोने में अंतर हैं , दुनिया को किसी चीज़ के लिए रोना, जो नहीं मिलती या मिलने पर को जाता हैं , और राम के विरह का रोना , बहुत ही सुख दायक होता हैं ।
कबीर दास के दोहे( kabir das ke dohe )
36
हांसी खेलौं हरि मिलै, कोण सहैं षरसान ।
काम क्रोध त्रिष्णा तजैं , तोहि मिलैं भगवान।।
अर्थ – संत कबीर दास जी कहतें हैं कि हँसी खेल में हरि से मिलन हो जाए, तो कौन व्यथा की शान पर चढ़ना चाहेगा । भगवान तो तभी मिलते हैं , जब काम, क्रोध और तृष्णा को त्याग दिया जाय ।
37
पूत पियारौं पिता कौ, गौहनि लागो धाई।
लोभ मिठाई हांथी दे , आपण गयों भुलाई ।।
अर्थ – पिता का प्यारा पुत्र दौड़कर उसके पीछे लग गया । हाँथ में लोभ की मिठाई दे दी पिता ने , उस मिठाई में रम गया उसका मन । अपने आप को वह भूल और पिता का साथ छूट गया ।
कबीर दास के दोहे मीठी वाणी (kabir das ke dohe)
38
परबति परबति मैं फिरया, नैन गँवायें रोइ ।
सो बूटी पाऊं नहीं , जातै जीवनी होई ।।
अर्थ– संत कबीर दास जी कहते हैं की- एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर मैं घूमता रहा, भटकता फिरा, रो- रोकर ऑंखें भी गवां दी । मगर वह संजीवनी बूटी कहीं नहीं मिला, जिससे कि जीवन यह जीवन बन जाय ।
39
सुखिया सब संसार है, खावै और खावै।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोबें।।
अर्थ – सारा ही संसार सुखी दिख रहा है , अपने आप में मस्त है वह , खूब खाता है खूब सोता है दुखिया तो यह कबीरदास है, जो आठों पहर जागता है और रोता ही रहता है ।
40
जा कारणि में ढूँढती, मनसुख मिल्या आई ।
धन मैली पिव उजला, लांगि न सकौं पाई ।।
अर्थ – जीवात्मा कहती है जिस कारण मै इतने दिनों से ढूंढ रही थी , वह सहज ही मिल गया, सामने ही तो था । पर उसके पैरों को कैसे पकड़ूँ मै तो मैली हूँ और मेरा प्रियतम कितना उजला हैं , सकोंच हो रहा है ।
कबीर दास के दोहे(kabir das ke dohe)
41
जब मै था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मै नाही ।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहि।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते है की जब तक यह मानता था कि मैं हूं तब तक मेरे सामने हरि नहीं थे और अब हरि आ गए हैं तो मैं नहीं रहा अंधेरा और उजाला एक साथ ,एक ही समय, कैसे रह सकते हैं फिर वह दीपक अंतर में था।
42
देवल माहैं देहुरी, तिल जे है बिस्तार।
माहैं पाती माहि जल, माहैं पूजणहार।।
अर्थ – मंदिर के अंदर ही देहरी है एक, विस्तार में तिल के मानिंद । वहीं पर पत्ते और फूल चढाने को रखे है , और पूजने वाला भी तो वंही पर है।
43
दीठा है तो कस कहूँ, कह्यां न को पतियाय ।
हरी जैसा है तैसा रहो , तू हरषि – हरषि गुण गाई।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते है कि यदि उसे देखा भी है , तो वर्णन कैसे करूँ उसका, यदि मै उसके बारे में वर्णन करता हूँ तो कौन मेरे इस बात में विश्वास करेगा । हरि जैसा है, वैसा है । तू तो आनंद में मग्न होकर गुण गान करता रहता है ।
44
पहुंचेंगे तब कहेंगे , उमड़ैंगे उस ठांइ ।
अजहुँ बेरा समंद मै, बोलि बिगूचै काई।।
अर्थ – संत कबीर दास जी कहते है कि जब उस स्थान पर पहुंच जायेगे , तब देखेंगे कि क्या कहना है , अभी तो इतना ही कि वँहा आनंद ही उमड़ेगा । और उसमें यह मन खूब खेलेगा । जबकि बेडा बीच समुन्द्र में है , तब व्यर्थ बोल बोलकर क्यों किसी को दुविधा में डाला जाय कि उस पार हम पहुँच गए है ।
45
राम – नाम के पटतरै , देबे की काछु नाही ।
क्या ले गुरु संतोषिए, हौस रही मन माही ।।
अर्थ – सद्गुरु ने मुझे राम का नाम पकड़ा दिया है, मेरे पास ऐसा क्या है उस मोल का, जो गुरु को दूँ , क्या लेकर संतोष करू उनका । मन की इच्छा मन मे ही रह गया, क्या दक्षिणा चढ़ाऊँ , वैसी वस्तु कहाँ से लाऊं ।
kabir das ke dohe कबीर दास के दोहे
46
सतगुरु लई कमा कमाण करि , बाहण लगा तीर ।
एक जु बहां प्रीति सूं, भीतरि रहा शरीर ।।
अर्थ – सद्गुरु ने कमान हाँथ में ले लिया है , और शब्द के तीर वे लगे चलाने । एक तीर बड़े प्रेम से ऐसा चला दिया लक्ष्य बनाकर कि, मेरे भीतर ही वह बस गया , अब बाहर नहीं निकल सकता ।
47
स्वामी हुवा सीतका, पैकाकार पचास ।
रामनाम काठै रह्या, करैं सिषा की आस ।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते है की स्वामी को आजकल मुफ्त में पचास पैसे मिल जातें है मतलब यह कि सिद्धियां और चमत्कार दिखाने और फ़ैलाने वाले स्वामी रामनाम को वो एक किनारे रख देते थे और लोभ में डूब कर शिष्यों से आशा करते है ।
48
कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलैं न कोई ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ।।
अर्थ – कबीर कहते है – बहुत बुरा हुआ इस कलियुग में, कहीं भी आज सच्चे मुनि नहीं मिलते । आज के समय में लालचियों और लोभियों का आदर हो रहा है ।
कबीर दास के दोहे ब्राह्मण पर(kabir das ke dohe)
49
ब्राह्मण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाही ।
उरझि- पुरझि करि मरि रह्या, चारिउँ बेंदा माहि ।।
अर्थ – ब्राह्मण भले ही सारे संसार का गुरु हो, पर वह साधू का गुरु नहीं हो सकता । वह क्या गुरु होगा जो चारों वेदों में उलझ कर ही मर रहा है ।
50
कबीर मन फूल्या फिरैं, करता हूँ मै ध्रंम।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न दिखै भ्रम ।।
अर्थ – कबीर कहते है की वह फुला नहीं समा रहा है वह कि मै धर्म करता हूँ । चेत नहीं रहा कि अपने इस भ्रम को देख ले कि धर्म कहाँ है , जबकि करोड़ों कर्मों का बोझ ढोयें चला जा रहा है ।
kabir das ke dohe
51
कबीर हरि- रस यों पिया, बाकी रही न थाकि।
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि।।
अर्थ – कबीर कहते है की हरि का प्रेम रस ऐसा छककर पी लिया कि कोई और रस पीना बांकी नहीं रहा । कुम्हार का बनाया जो घड़ा पाक गया । वह दोबारा उसके चाक पर नहीं चढ़ता ।
माया का अंग- कबीर दास के दोहे(kabir das ke dohe)
52
कबीर माया पापणी, फंध ले बैठी हटी ।
सब जग तौं फंधै पड्या, गया कबीरा काटी ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते है की यह पापिन माया फंदा लेकर बाज़ार में आ बैठी है । इसने बहुत लोगों पर फंदा डाल दिया है , पर कबीर ने उसे काटकर साफ़ बाहर निकल आयें है । हरि भक्त पर फंदा डालने वाला खुद ही फंस जाता है ।
53
कबीर माया मोहनी, जैसी मीठी खांड।
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौं करती भांड ।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते है की – यह मोहनी शक्कर के जैसी स्वाद में मीठी लगती है, मुझ पर भी यह मोहनी डाल देती पर न डाल सकी। सतगुरु की कृपा ने बचा लिया , नहीं तो यह मुंझे भांड बनाकर छोड़ देता ।
कबीर दास के दोहे kabir das ke dohe
54
माया मुई न मन मूवां, मरि- मरि गया शरीर ।
आसा त्रिष्णा ना मुई, यों कही गया कबीर ।।
अर्थ – कबीर कहते है की – न तो यह माया मरी और न ही मन मरा, शरीर ही बार बार गिरते चले गयें। मै बार बार हाँथ उठाकर कहता हूँ । न तो आशा का अंत हुआ और न तृष्णा का ।