उत्तर वैदिक काल | vaidik kal in hindi

पूर्व वैदिक काल में आर्य लोग अफगानिस्तान से गंगा यमुना नदी तट तक बसे हुए थे। पंजाब तथा सरस्वती नदी का तटवर्ती प्रदेश आर्य सभ्यता का गढ़ बन गया था। उत्तर वैदिक काल में आर्य संस्कृति का केंद्र स्थल  कुरु,पांचाल प्रदेश तक फैल गया था।

उत्तर वैदिक काल
उत्तर वैदिक काल

कुरु जनपद के अंतर्गत आधुनिक थानेश्वर, दिल्ली तथा गंगा घाटी का ऊपरी भाग एवं पांचाल के अंतर्गत आधुनिक बरेली बदायूं, फर्रुखाबाद तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ पड़ोसी भू भाग तक आ गया था ।

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गंगा यमुना का तटवर्ती मध्यदेश के नाम नाम से जाना जाने वाला भू भाग अब एक विशिष्ट स्थान रखता था। काशी और कोशल आर्यों के नए केंद्र बन चुके थे। और वे आधुनिक बिहार तक पहुंच गए थे ।

इस काल के साहित्य में पहली बार अन्ध्रों, पुंड्रो(बंगाल में) के बारे मे जानकारी मिलता है ।  अंग और विदर्भ अन्य प्रदेश थे, जिनका उल्लेख उपनिषदों में हुआ है एवं ऐतरेय ब्राह्मण इस कथन की पुष्टि करते हैं।

इससे स्पष्ट है कि इस काल में आर्य लोग हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत तक के संपूर्ण भू भाग से परिचित थे। उनके ज्ञान की परिधि इस सीमा से आगे भी विस्तृत था ।

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उत्तर वैदिक काल में प्रदेशिक राज्यों की स्थापना

ऋगवैदिक काल आर्यों के विविध जनों के बारे मे बताया गया है। किंतु ऋगवैदिक काल में इन्हें किसी निश्चित भू प्रदेश के साथ संबंध नहीं बताया गया है । ऐसा उनके सुनिश्चित आवासों के ना होने के कारण था।

उत्तर वैदिक काल में जनों का स्थान जनपदों ने ले लिया था अर्थात अब किसी भी राजनीतिक इकाई अथवा राज्य के अंतर्गत एक निश्चित प्रदेश को सम्मिलित माना जाता था। प्रदेशिक राज्यों की स्थापना के कारण विस्तार वादी प्रवृत्ति का जन्म हुआ शक्तिशाली राज्य पड़ोसी राज्य को अपने अंदर मिलाकर अपने क्षेत्र के विस्तार की कामना करने लगे थे।

कुरू, गांधार, केकय, मद्र, काशी, अवंती, अश्मक, मूलक, कोशल आदि इस युग  के महत्वपूर्ण जन राज्य थे।  राजनीतिक पर धर्म के प्रभाव ने इस विश्वास को जन्म दिया कि राजसूय, बाजपेय तथा अश्वमेघ यज्ञो के करने से राजा को सार्वभौम पद की प्राप्ति होती है। और सागर पर्यंत सारी पृथ्वी पर उसका शासन स्थापित होता है ।

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छोटे तथा बड़े राज्यों में अंतर किया जाने लगा था । सम्राट पद की प्राप्ति प्रत्येक शासक की कामना बन गया था, जिसके पूर्ति के लिए वह अधिक से अधिक भूभाग पर अधिकार करने के लिए सदैव लगें रहते  थे ।राजाओं की इस प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप इस काल में अपेक्षाकृत बड़े राज्यों की स्थापना हुई ।

राजा के पद की महिमा में वृद्धि

बड़े राज्यों की स्थापना से राजा की शक्ति में वृद्धि संभावित था ।यद्यपि इस काल के साहित्य में भी राजा के निर्वाचन के उदाहरण मिलते हैं किंतु सामान्यता राजा का पद अभी स्थाई और वंश आधारित हो गया था ।

किंतु यदि राजपुत्र राजपद के योग्य नहीं होता तो प्रजा को राजवंश के किसी अन्य व्यक्ति को राजा के रूप में प्रतिष्ठित करने का अधिकार प्राप्त था। कई स्थानों पर उसमें देवी गुणों का होना बताया गया है।  ऋगवैदिक कालीन सभा और समिति  संस्थाएं अभी भी जीवित थी। पर अब उनका वह प्रभाव नहीं रह गया था ।

राजा अब अधिक सुखी से रहने लगे थे। और अब राजा कि अपनी परिषद होती थी। राज्य कार्य में उसे सहायता पहुंचाने के लिए  कर्मचारी अस्तित्व में आ गए थे। राजा  अपने कुल के लोगों का एक स्वतंत्र वर्ग बन गया था।

ये क्षत्रिय उसकी शक्ति के आधार पर यद्यपि  राजा इन सबके ऊपर होता था।  राजा नीति निर्माता था एवं सर्वोच्च सेनापति एवं न्यायधिकारी था ।  धर्म अनुसार शासन करना न्याय प्रदान करना, बाहरी  आक्रमणों  व आंतरिक असमानता से राज्य व प्रजा की रक्षा करना,  दुर्बल की रक्षा करना, राज्य विस्तृत करना, लोक कल्याण हेतु प्रयास करते रहना, प्रजा के सुख के लिए यज्ञ अनुष्ठान करना ऋषि मुनि एवं अतिथियों का सत्कार करना ये सब  राजा के कुछ प्रमुख कर्तव्य थे।

राजनीतिक जीवन

राज्यों के सीमा वृद्धि होने से प्रशासन में जटिलता बढ़ी । राज्य कार्य को सुचारू रूप से चलाने में राजा  कर्मचारियों से सहयोग लेता था। इन्हें रत्निन कहा जाता था। संभवत यह उच्च पदाधिकारी ही राज्य परिषद का निर्माण करते थे।

इनका महत्व इस बात से स्पष्ट है कि राज्य के अवसर पर राजा इनमें से प्रत्येक घर जाकर कुछ अनुष्ठान करता था और इस प्रकार उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट करता था। ब्राह्मण ग्रंथ में इन्हें राष्ट्र का धारा कहा गया है।

प्रशासन तंत्र में सबसे ऊपर राजा हो तथा अन्य अधिकारियों में पुरोहित का विशिष्ट महत्व होता था।  इस पद का महत्व धार्मिक तथा बौद्धिक था। वह राजा का प्रमुख परामर्शदाता था, और राजा को देवीकृपा दिलाने के उद्देश्य से यज्ञ आदि अनुष्ठान करता था ।

सेनानी नामक पदाधिकारी युद्धों में सेना का नेतृत्व करता था और ग्राम का प्रमुख था। राज्य का नियमित रूप से कर वसूल करने लगा था।

न्याय व्यवस्था

उत्तर वैदिक काल में राजा सबसे बड़ा न्याय अधिकारी होता था। नियम बनाना और अपराधियों को दंड देना राजा का प्रमुख कार्य माना जाता था।  राजा न्यायाधीशों की नियुक्ति भी करता था । जिन्हें स्थ्पित  कहा जाता था।

कानून जन सामान्य के लिए एक होता था। परंतु दंडित करते समय  अपराधी की स्थिति को ध्यान में रखा जाता था। दण्ड के प्रकार देश-निकाला, शारीरिक यातना एवं जुर्माना आदि आदि दिया जाता था।  छोटे अपराधों का ग्राम अधिकारी निर्णय करता था।

उत्तर वैदिक कालीन सामाजिक जीवन

इस काल में समाज का मूल ढांचा वही था जो ऋगवैदिक काल में था। इस समय कई महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन हुए।

वर्ण व्यवस्था

ऋग्वेद में चारों वर्णों की चर्चा एक ही स्थान पर मिलता है। इसमें यह वर्ण खुले सामाजिक वर्गों के रूप में दिखाई देते हैं। जिसके अंतर्गत व्यक्ति के वर्ण का निर्धारण उसके जन्म से ना होकर उसके कारण से होता था।

उत्तर वैदिक काल में चारों वर्णों का उल्लेख मिलता है। इसमे ये वर्ण खुले रूप मे दिखाई पड़ते है। ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्गों के स्थिति अच्छा था। कृषक तथा शिल्पी वैश्य वर्ग  के अंतर्गत रखे गए। और शूद्र वर्ण के ऊपर सेवा कार्य रखा गया।

उत्तर वैदिक काल में अंतर जाति विवाह के कई उल्लेख मिलते हैं। पर समान रूप से अपने वर्ण के अंदर विवाह करना ठीक माना जाता था

परिवार का स्वरूप  

इस काल मे सयुंक्त परिवार की परंपरा सामान्य रूप से चलता था । तथा कई कारणों से परिवार टूट भी जाते थे । और पिता के रहते संपत्ति का बंटवारा भी हो जाता था । और पिता का परिवार के अन्य सदस्यों के ऊपर सर्वोच्च अधिकार होता था ।

उत्तर वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति

उत्तर वैदिक काल मे स्त्रियों को सम्मान जनक स्थान प्राप्त था। साथ ही परवर्ती काल मे उनकी जो अपेक्षा कृत हीन दशा हुआ । इस काल मे भी यह दशा शुरू हो गया था । स्त्रियों की प्रशंसा मे कई उल्लेख मिलते है।

और यह कहा गया है की बिना स्त्री के कोई पुरुष पूर्ण नहीं होता । साथ ही पुत्री को कष्ट का कारण बताया गया है । इस समय राजाओं और समृद्ध लोगों मे बहू विवाह का प्रचलन था जिससे उनकी स्थिति में हीनता आया ।

जीवन शैली

भोजन के विषय मे उत्तर वैदिक काल में आर्यों का विचार ऋग्वैदिक काल जैसा ही था । भोजन के रूप में अन्न, दुग्ध, गेंहू एवं चावल मुख्य थे । वैदिक साहित्य मे ओदन, क्षीरोदन एवं तिलोदन नामक शब्द के बारे मे जानकारी मिलता है जो की दूध में किसी वस्तु को पकाकर खाने का सूचक है ।

बैल बकरा एवं पशु पक्षियों का मांस भी प्रचलन मे था । ऋग्वैदिक काल की भाँति भी इस युग में भी लोगों को सब्जियों एवं फलों का शौक था ।

वेष भूषा मे मनुष्य ने उत्तर वैदिक काल में बहुत प्रगतिकर लिया था । वस्त्रों मे सूती, ऊनी एवं रेशमी वस्त्रों का उपयोग किया जाता था । रंग बिरंगे एवं सिले हुए वस्त्र बहुत लोक प्रिय था । धनी वर्ग के लोग अपने वस्त्रों पर सोने चाँदी की जारी का भी काम करवाते थे ।

नगर

नगर शब्द का प्रयोग उत्तर वैदिक काल मे मिलता है, हस्तिनापुर एवं कौशांबी को नगर के रूप मे माना जा सकता है । अधिकांश घर कच्ची एवं पक्की ईटों के बने होते थे । घाँस से घरों की छत पाटी जाती थी ।

आश्रमों का विभाजन आयु के आधार पर किया जाता था ।

  1. 5 से 25 वर्ष तक ब्र्म्ह्चर्य का पालन ।
  2. 26 से 50 तक गृहस्थ जीवन।
  3. 51 से 75 तक वानप्रस्थ ।
  4. 76 से 100 तक सन्यासी जीवन।