दक्षिण भारत में चोल वंश को प्राचीनतम शासक माना जा सकता है । महभारत में इसका उल्लेख मिलता है और अशोक के अभिलेख में इसकी गड़ना स्वतंत्र राज्य के रूप में मिलता है । सिहली ग्रन्थ महावंश में कई चोल वंश के शासको के बारे में जानकारी मिलती है । संगम साहित्य में करिकाल चोल के बारे कुछ महत्व पूर्ण साक्ष्य मिलता हैं । किन्तु ऐतिहासिक काल में 9 वी शताब्दी ई तक चोल , पल्लवों और पांडयों के कारण अंधकार में रहे ।
चोल वंश का संस्थापक
चोल साम्राजय का संस्थापक विजयपाल (846-871 ई ) था । यह पल्लव वंश का सामंत था । पल्लवों के सामंत रूप में उसने तंजौर पर अधिकार किया और उसे अपनी राजधानी बनाई । उसके पुत्र आदित्य प्रथम (871-907 ई ) के समय में चोल वंश सर्वथा स्वतंत्र हो गया । उसने कई युद्ध लड़े जिसमे युवराज परान्तक से उसे बड़ी सहायता मिली ।
परान्तक प्रथम
आदित्य प्रथम के बाद परान्तक प्रथम (907-946) राजा बना । वास्तव में चोल शक्ति की स्थापना का श्रेय इसी को दिया जाता है । उसने मदुरा के पण्डया राजा को हराया और लंका पर भी आक्रमण किया । किन्तु वह राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय से तथा गंग शासक बुटुंग से पराजित हो गया । चोल राज्य का बहुत बड़ा भाग इनके पास चला गया। परान्तक शैव धर्म का अनुयायी था और उसने कई मंदिर बनवाएं।
राजराज प्रथम
परान्तक की मृत्यु के बाद 30 वर्षों तक चोल राज्य की दशा कुछ ठीक नहीं रहा । और चोल शक्ति इस काल में दुर्बल थी 985 ईसवी में राजराज प्रथम (985-1014 ईसवी )के राज्यारोहण के बाद चोल वंश का वास्तविक उत्कर्ष प्रारंभ हुआ ।उसके बाद दो शताब्दियों तक चोल वंश का इतिहास संपूर्ण दक्षिण भारत का इतिहास बन जाता है। राजराज प्रथम ने कडलूर में चेरों की नौसेना को हराया और चालूक्यों तथा गंगो को अपनी अधीनता स्वीकार करायी ।
उसने उत्तर में कलिंग को जीता और लंका के राजा को हराया। अपनी नौसेना के द्वारा उसने लक्ष्यदिव और मालद्वीप को जीता। सुमात्रा के श्रीविजय के साथ उसका मित्रता पूर्ण सबंध था । उसके प्रभाव में सारा द्रविण प्रदेश, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, कलिंग और लंका था । उसके पुत्र राजेंद्र ने राष्ट्रकूट राजधानी मान्यखेट को लूटा। वह एक योग्य शासक और सफल योद्धा था ।
राजेंद्र चोल
उसके बाद राजेंद्र चोल (1014-1042 ई) राजा हुआ । उसने कल्याणी के चलुक्यों तथा बनवासी के कदम्बों को हराया और मध्यप्रदेश में गोंडवाना को जीता । उसने लंका के राजा पंचम महिंद्र को भी हराया । उसने कलिंग के गंगों को हराया और अपनी सेना के साथ गंगा की घाटी की ओर बढ़ा।
उसने गंगा घाटी के राजाओं को हराया और वहा से पवित्र गंगा जल को अपने साथ लाया । इस जल को उसने एक तडंग में डलवाया और उसे चोलगंगम नाम दिया । कहा जाता है की यह जल पराजित राजाओं के सिर पर रखकर यहाँ तक लाया गया था ।
इस विजय के उपलक्ष्य में गंगईकोंण्ड की उपाधि धारण की गंगईकोंण्डचोलपुरम नगर बसाया । अपनी नौसेना को लेकर उसने अण्डमान, निकोबार द्विपों को जीता और सुमात्रा तथा मलाया के पश्चिमी तट पर उसका अधिकार हो गया । उसके अंतिम दिनों में केरल और पण्डया प्रदेशों में विद्रोह हुए किन्तु उसने उन्हें सफलता पूर्वक दबा दिया ।
राजधिराज
राजेंद्र चोल के बाद राजधिराज राजा हुआ । उसने भी कार्य किए और कल्याणी के चालुक्यों को हराया ।
कुलोत्तुंग
इसके पश्चात महत्वपूर्ण चोल वंश का शासक कुलोत्तुंग (1070-1120) था । उसने युद्ध की अपेक्षा अपनी प्रजा पर अधिक ध्यान दिया । उसके समय में लंका स्वतंत्र हो गया और लंका के राजा फेरुमल के साथ उसने अपनी कन्या का विवाह कर दिया । वेंगी में उसके पुत्र प्रांतीय शासक के रूप में राज्य करते थे । उसने अपनी सेना भेज कर कलिंग को भी जीता ।
उसके बाद उसका पुत्र विक्रम चोल राजा बना । उसने वेंगी और गंगवाड़ी को जीता । कुलोत्तुंग तृतीय चोल वंश का अंतिम महान शासक बना जो 1178 ई में गद्दी पर बैठा । राजेंद्र तृतीय इस वंश का अंतिम शासक बना । 1310 -11 ई में अलाउद्दीन के सेनापति मालिक काफूर ने आक्रमण कर स्थानीय चोल शासक को समाप्त कर दिया ।
चोल संस्कृति
चोल वंश का प्रशासन
यह ग्राम पंचायत प्रणाली पर आधारित था । इनका सम्पूर्ण राज्य छः प्रांतों में बंटा हुआ था, जिनको मण्डलम कहा जाता था । मण्डलम के उप विभाग कोट्टमं( कमिश्नरी ) और कोट्टमं के उप विभाग नाडु के अंतर्गत कृषि ( ग्राम समूह ) और ग्राम होते थे । अभिलेखों में नाडु की सभा को नाटर और नगर की श्रेणियों को नागरतार कहा गया है । सबसे अधिक विकसित और सुसंगठित शासन गावँ निवासियों द्वारा प्रतिवर्ष निर्वाचन होता था । निर्वाचन और सदस्यता के नियम बने हुए थे । प्रत्येक मंडलम को पूर्ण स्वायत्ता प्राप्त थी । लेकिन राजा के प्रशासन को नियंत्रित करने के लिए कोई केंद्रीय विधान सभा नहीं थी ।
भूमि की उपज का लगभग छठा भाग सरकार को लगन के रूप में मिलता था । लगान अनाज या स्वर्ण मुद्रा के रूप में अदा किया जा सकता था । चोल राज्य में प्रचलित सोने का सिक्का कासु कहलाता था जो 16 औंस का होता था । चोल राजाओं के पास विशाल सेना के साथ साथ मजबूत जहाजी बेड़ा भी था । चोल राजाओं ने सिंचाई की बड़ी बड़ी योजनायें पूरी की और सड़कों का निर्माण बहुत ही सुन्दर ढंग से किया । चोल प्रणाली वास्तव में उस समय बहुत उन्नत थी ।
चोल वास्तु
चोल वास्तु का सबसे बड़ा उदाहरण तंजौर का राजराजेश्वर शिव मंदिर है। जिसे गजराज प्रथम महान लगभग(985-1016 ई) ने बनवाया था। अन्य उदाहरण गंगेकोण्ड चोलपुरम में मिलते हैं,जिसे राजेंद्र प्रथम ने नई राजधानी बनाया था। चोल वास्तु के बाद के नमूने मदुराई, श्रीरंगम, रामेश्वरम तथा चोल मण्डल तट पर स्थित अन्य स्थानों पर मिलते हैं।
चोल कालीन मंदिर अपनी विशालता एवं भव्यता के लिए विख्यात है ।पहली विशेषता यह है कि वह अनेक मंजिलों वाले शिखर से मंडित होते थे ।इन मंदिरों की दूसरी विशेषता अधिष्ठान पीठ से लेकर शीर्ष बिंदु तक इनका प्रति माल करण है इनकी तीसरी विशेषता इन का विशाल मुख्य द्वार है,जिसे गोपुरम कहते हैं यह गोपुरम कहीं-कहीं मंदिरों से भी ऊंचे होते थे और मिलो दूर से भी दिखाई पड़ते थे चोल मंदिरों की चौथी विशेषता यह है कि इनमें एक के बाद एक प्रांगण होते थे. जो मंदिरों और विशाल मंडलों से युक्त होते थे।
चोल वंश का राजस्व व्यवस्था
चोल राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमि कर जिसको एकत्र करने का भार ग्रामसभा पर था। उत्पादन का एक तिहाई भू राजस्व के रूप में लिया जाता था। कुलोत्तुंग प्रथम ने भूमि का माप करवाया तथा कृषि भूमि के किस्मों का समय-समय पर पुनर्मूल्यांकन तथा भू राजस्व का निर्धारण करने का उल्लेख मिलता है। सीमा शुल्क राहदारी अनेक व्यवस्था तथा धंधों पर लगाए गए करो से राज्य को अतिरिक्त आमदनी होती थी।
खानों तथा जंगलों के उत्पादन के अतिरिक्त नमक कर भी राज्य की आय के प्रमुख स्रोत थे । श्रमिकों से बेगार के रूप में भी काम लिया जाता था तथा चोल प्रशासन में भूमि दान की प्रक्रिया बहुत ही जटिल थी। सिंचाई व्यवस्था में कावेरी तथा अन्य नदियों के पानी का उपयोग किया जाता था। इसके अतिरिक्त विवाह समारोह में भी कर लगाया जाता था । प्रत्येक गांव और शहरों में बस्ती वाले भाग, तालाब , मंदिर गांव से होकर बहने वाली नदी, निम्न जाति की झोपड़ियों पर कर नहीं लगाया जाता था।
चोल वंश का स्थानीय स्वशासन
संपूर्ण साम्राज्य के गांवों में स्थानीय स्वशासन को प्रोत्साहित करना चोल प्रशासन की उल्लेखनीय विशेषता थी। गांव तथा नगरों की सभाएं शासन की मूलभूत इकाई थी। नाडु की प्रशासनिक सभायें प्रतिनिधियों द्वारा निर्मित होती थी। इस काल में स्थानीय स्वशासन में उर तथा सभा अथवा महासभा बालिग सदस्यों द्वारा निर्मित होता था । सभा महासभा गांव के वरिष्ठ ब्राह्मणों की सभा थी।इसमें स्त्रियां होती थी।
महासभा को नेरू – गुरी कहा जाता था। तथा इनके सदस्यों को पेरुमुक्कल कहा जाता था। गाँव के कारोबार की देखरेख एक कार्यकारिणी समिति करती थी जिनको वरियम कहा जाता था । वरियम की सदस्यता के लिए 35 से 70 वर्ष की आयु के ऐसे व्यक्तियों का नामांकन किया जाता था जिनके पास लगभग एक डेढ़ एकड़ भूमि हो तथा जो अपनी भूमि पर बने मकान में रहने वाला हो कुछ लोगों को इन सदस्यों में शामिल नहीं किया जाता था
- जो विगत 3 वर्षों से किसी भी समिति में रह चुके हो।
- जो समिति में रहकर अपने आय व्यय का लेखा जोखा ना दे।
- भयंकर अपराध का अपराधी वाला व्यक्ति।
- जो व्यक्ति दूसरों का धन चोरी किया हो।
सभा की बैठक सामान्यतः गाँव के मंदिरों और मंडपों में होती थी। गाँव में कार्यसमिति के लिए जो कर्मचारी रखे जाते थे उन्हें मध्यस्थ कहा जाता था ।
ग्राम सभा
ग्राम सभायें प्रायः स्वतंत्र थी । हर प्रकार की भूमि इनके अधीन थे ।
ग्राम सभा के प्रमुख कार्य
- जंगल साफ़ कर कृषि के भूमि तैयार करना ।
- लगान एकत्र करना ।
- धार्मिक न्यास के रूप में भूमि अथवा कर दान स्वीकार करना।
- गाँव के सदाचार को बनाये रखना ।
- न्याय और दंड का पालन करें ।
- मठों के माध्यम से शिक्षा का प्रबंध करना ।
- आय व्यय का का हिसाब रखना और समय समय पर उसकी गड़ना करना।
सेना
चोलों ने सैनिक शक्ति के बल पर एक विशाल साम्राज्य निर्मित किया था । उनकी नौसेना भी अभूतपूर्व थी । इसी शक्ति से उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित किया था । थल सेना के मुख्य अंग थे धनुर्धर, हाथियों, घुड़सवार तथा पैदल सेना । 60 हजार का विशाल हस्ती दल डेढ़ लाख पैदल सैनिक चोल सेना में थे । सेना में अनेक सेनापति ब्राह्मण थे। जिन्हे ब्रम्हाधिराज कहा जाता था ।
चोल कला
चोल काल में दक्षिण भारत की द्रविण शैली का बहुत विकास हुआ । मंदिरों में सजावटपूर्ण खम्भे मिलते है । मुख्य मंदिर के आगे एक ऊँचा द्वार बना मिलता है । जिसे गोपुरंम कहते है । मंदिर कई मंजिलों के है जो देखने में पिरामिड़ की तरह लगते है ।
राजराज प्रथम का तंजौर का शिव मंदिर द्रविण शैली का सबसे सुन्दर उदाहरण है । यह कई मंजिलों का है जिसके ऊपर 82 वर्ग के आधार पर गगनचुम्बी विमान बना हुआ है । इस शिव मंदिर का निर्माण 1011 ई में हुआ । इस मंदिर में वैष्णव का शैव धर्म का समन्वय देखा जा सकता है ।
चोल वंश में मूर्ति कला में काफी प्रगति हुई । जिसका प्रतिरूप कांसे की बनी नटराज शिव की मूर्तियों में परिलक्षित होती है । कांसे के अतिरिक्त पत्थरों की मूर्तियां भी बनाया जाता था।
समाज
चोल राजा शैव धर्म अनुयायी थे । चोल लेखों में वैदिक कर्मकाण्ड की चर्चा बहुत काम मिलती है । केवल राजधिराज के लेखों में अश्वमेघ का उल्लेख मिलता है । दक्षिण भारत में स्त्रियों की स्थिति उत्तर भारत की अपेक्षा अच्छी थी । उच्च कुलों की स्त्रियाँ सम्पति की स्वामी होती थी और उसे अपनी इच्छानुसार बेंच भी सकती थी । देवदासी प्रथा प्रचलित थी । दास प्रथा भी दक्षिण भारत में प्रचलित था ।
धर्म
चोल वंश में शैव धर्म की प्रधानता थी और स्वयं चोल शासक इस धर्म के अनुयायी थे । किन्तु वैष्णव, जैन और बौद्ध धर्मों के प्रति उनका उदारतापूर्वक दृष्टिकोण था । राजराज शैव धर्म का अनुयायी था किन्तु उसने विष्णु का मंदिर बनवाया था । इस काल के धर्म में मूर्तिपूजा पर विशेष बल दिखाई देता है । लोग तीर्थ यात्रा भी करते थे और इसका विशेष महत्व मन जाता था । वैष्णव धर्म के अंतर्गत आलवार संतों ने भक्ति का खूब प्रचार किया ।