वेदों के अनुसार प्राचीन भारत का इतिहास कई हजारों लाखों सालों का है, इसे देव भूमि भी कहा जाता हैं यहाँ मुख्य रूप से आर्य समाज के लोग निवास करते थे,जिसे आज का हिन्दू धर्म कहा जाता हैं।
भारत हजार वर्षों तक विदेशी आक्रमण के कारण यहाँ के मूल शिक्षा पद्धति और इतिहास को मिटा दिया गया। वेदों के अनुसार आज का वर्तमान समय को कलियुग कहा जाता हैं ,भारतीय ग्रंथो के अनुसार इसके पहले तीन युग बीत चुके हैं सतयुग ,द्धापर युग ,त्रैता युग।
इतिहासकारों की माने तो प्राचीन भारत का इतिहास के विषय में मुख्य रूप से पुरातात्विक उत्खननों से हमें ऐसी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती हैं ।जिनके बारे में हमें कभी भी ज्ञात नहीं हो होता।
राजगृह ,शिशुपालगढ़ इन ऐतिहासिक स्थानों पर उत्खनन से से हमें तत्कालीन युग के बारे में बड़ी महत्वपूर्ण सूचनायें मिलती हैं। पुरातात्विक साक्ष्य कई रूपों में मिलते हैं, जिसमें पुराने बर्तन ,मूर्तियाँ ,भवन ,औजार, अभिलेख और हथियार मिले हैं ,इससे हजारों वर्षों पहले सामान्य जन जीवन के बारे जानकारी मिलती हैं।
ये साक्ष्य साहित्यिक साक्ष्यों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। इनके आधार पर मनुष्यों की मान्यताओं और मूल्यों के बारे में अनुमान लगाया जा सकता हैं।
rachin Bharat ka Itihas In Hindi
प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण साक्ष्य
आभिलेखिक साक्ष्य
प्राचीन भारत– इसके अंतर्गत वह सामग्री आती हैं जो हमें ग्रंथों के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में लिखी हुई मिलती हैं ।जिसमें इसके कई भाग मिलते हैं गुफा लेख ,शिलालेख ,स्तभ लेख ,ताम्र पत्रों पर अंकित लेख। इन लेखों में कुछ राजशासन ,दान लेख ,प्रशस्तियाँ हैं,इस प्रकार इन लेखों के विषयों में बड़ा अंतर मिलता हैं। इतिहास के साक्षय के रूप में इनका महत्व अधिक होता हैं ,क्योकि ये पुराने समय के साक्ष्य होते हैं और उस समय के तत्कालीन साहित्य ,संस्कृति एवं जन जीवन के जानकारी प्राप्त होता हैं।
इन लेखों में शासकों के नाम , शासन वंश ,तिथि और समसामयिक घटनाओं के बारे में महवपूर्ण सुचनायें मिलती हैं।और कभी कभी इन लेखों से ग्रंथों द्वारा पहले से वर्णित घटनाओं का समर्थन होता है।
उदाहरण के लिए ,मौर्यकालीन प्रशासन अथवा जन जीवन के विषय में कौटिल्य (आचार्य चाणक्य ) के अर्थशास्त्र तथा मेगस्थनीज के इंडिका से जो जानकारी मिलती है ,अशोक के लेखों से उनका प्रायः समर्थन होता हैं। और इस प्रकार प्राप्त ऐतिहासिक सूचना और अधिक प्रमाणिक हो जाती हैं। और हर्ष के विषय में बाण के हर्षचरित से महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।(प्राचीन भारत का इतिहास)
इन लेखों से शासन-व्यवस्था के ऊपर भी महत्त्वपूर्ण प्रकाश पडता है। इन में पदधिकारियों के नाम और उनके- कार्य- व्यापारों का विवरण भी प्राप्त होता है।साम्राज्य की विविध प्रशासनिक इकाइयों के सम्बन्ध में भी इनसे सूचना मिलती है।
रुद्रदामन् जूनागढ़ के अभिलेख
रुद्रदामन् जूनागढ़ के अभिलेख का विद्वानों ने संस्कृत भाषा के विकास क्रम को समझने में किया है। धार तथा अजमेर के चट्टानों पर नाटक लिखे हुए मिले हैं। इसी संदर्भ में पुष्यमित्र– शृंग का अयोध्या अभिलेख दशरथ के नागार्जुनी गुहालेख सातवाहनों के नासिक नानाघाट और कार्ले के लेख तथा गुप्त नरेशों के–गुहालेख उल्लेखनीय हैं |
इसी प्रकार के अभिलेख दानपत्र,स्मारक-पत्र तथा मुद्राओं पर भी उपलब्ध हुए हैं। । ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन मूर्तियों पर उत्कीर्ण लेख भी प्राचीन भारत के इतिहास निर्माण में सहायक-सिद्ध हुए हैं।
कुछ विदेशी अभिलेख जैसे कि बोगजकोई, पर्सिपोलिस तथा नक्शे रुस्तम अति उल्लेखनीय अभिलेख भी प्राचीन भारत के इतिहास के बारे में जानने में सहायता करते हैं।वैदिक आर्यों का सम्बन्ध एशिया माइनर से प्राप्त बोगजकोई अभिलेख में वरुण, इन्द्र और नासत्य आदि वैदिक देवताओं के उल्लेख से प्रकट एवं प्रमाणित होता है।
प्राचीन इतिहास के सिक्कों का साक्ष्य
प्राचीन भारत का इतिहास के लेखन में सिक्कों से भी सहायता मिलती है। इतिहास की प्राचीनतम सिक्के आहत मुद्रायें है । जिन पर कोई लेख नही मिलता पर कई प्रकार के चिन्ह: बने हुए मिलते हैं। सिक्कों पर ही आधारित बहुत से इन्डो-ग्रीक, बैक्ट्याई तथा शक शासकों के नाम केवल सिक्कों के कारण ही ज्ञात हैं।
इन पर अंकित तिथियां उनके ऐतिहासिक महत्त्व को और भी बढा देती हैं। सिक्कों की बनावट तथा अन्य विचित्रताओं से इतिहासकार कभी-कभी बडे महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकालने-में सफल होते हैं।
इन पर शासक के नाम और उपाधियों के अतिरिक्त उसकी प्रतिकृति भी दी गई होती है जिससे कभी-कभी कुछ मत्त्त्वपूर्ण सूचनाऐं मिलती हैं।
शक शासकों की मुद्राओं पर शासक के साथ युवराज का नाम भी मिलता है जिससे उत्तराधिकार क्रम को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती।इनके आधार पर कभी-कभी इतिहासकार को यह निष्कर्ष निकालने में सहायता मिलती है कि जहाँ से सिक्कों की प्राप्ति हुई वह प्रदेश उस शासक के अधिकार क्षेत्र में रहा होगा।
समुद्रगुप्त की मुद्रा
समुद्रगुप्त की कुछ मुद्राओं पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है जिससे उसकी व्यक्तिगत रुचि का पता चलता है। साथ ही कुछ मुद्राओं पर अंकित अश्व एवं “अश्वमेघ पराक्रम:“ लेख शासक द्वारा अश्वमेध यज्ञ किये जाने का बोध कराते हैं। किसी भी राज्य की आर्थिक सम्पन्नता सिक्कों से आंकी जा सकती है।
गुप्त शासकों के सिक्के
जहां एक ओर पूर्व गुप्त शासकों द्वारा चलित शुद्ध स्वर्ण सिक्के प्राप्त होते हैं वही स्कन्दगुप्त के स्वर्ण सिक्कों में मिलावट राजनीतिक अशांति एवं बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति को दर्शाता है। इसी प्रकार गुप्त मुद्राओं के उस प्रकार से जिसे चंद्रगुप्त कुमारदेवी प्रकार कहा जाता है।
गुप्त शासक चंद्रगुप्त प्रथम तथा लिच्छवि राजकन्या कुमारदेवी के महत्त्वपूर्ण वैवाहिक सम्बन्ध की सूचना मिलती है। सिक्कों का ऐतिहासिक महत्त्व इसी से स्पष्ट हो जाता है कि 200 ईस्वी पूर्व में लगभग सौ वर्षों तक पंजाब प्रदेश पर लगभग तीस बेट्रियाई शासकों ने शासन किया और इनके विषय में जानकारी केवल सिक्कों पर आधारित है।
जोगलथम्बी से प्राप्त सिक्के
जोगलथम्बी से प्राप्त शक राज नहपान के सिक्कों पर सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णी का नाम भी पाया जाता है जो सातवाहन शासकों की शकों पर विजय का सूचक है। प्राय: एक शासक के काल के बहुसंख्यक सिक्के उसके शासन की स्थिरता को सूचित करते हैं, तो दूसरी ओर किसी शासक के अल्पसंखयक सिक्के उसके अल्पकालीन और संकटपूर्ण शासन की जानकारी देते हैं।
धार्मिंक इतिहास को समझने में भी सिक्के कभी-कभी बडे सहायक होते हैं।कुषाण शासक कुजुल कैडफिसेज को उसके सिक्कों पर `सत्य-धर्म-स्थित` कहा गया हे जिससे ज्ञात होता है कि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था।
विम फैडफिसेज के सिक्कों पर `महेश्वर` लिखा हुआ मिलता है तथा साथ ही त्रिशूल, नन्दी और शिव की आकृति बनी हुई मिलती है।उसके हैव धर्म के अनुयायी होने में इस प्रकार कोई सन्देह नहीं रह जाता । कनिष्क की मुद्राओं पर बुद्ध की आकृति मिलती है। विविध शासकों के सिक्कों पर लक्ष्मी के कई प्रकार मिलते हैं जिससे देवी के कई रूप एवं मुद्राओं के दर्शन होते हैं।
साहित्यिक स्रोत
साहित्यिक स्रोत को ऐतिहासिक और अर्ध-ऐतिहासिक वर्गों में बांटा जा सकता है। जिसके अन्तर्गत वे नाटक, काव्य-ग्रन्थ आदि आते हैं जिनका मुख्य प्रयोजन ऐतिहासिक विवरण देना नहीं है, किन्तु जिनमें महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सूचनायें सुरक्षित होता है।
इन ग्रन्थों के धार्मिक सबंध के आधार पर इन्हें मुख्य रूप से तीन वर्गों में रखा जा सकता है, ब्राह्मण साहित्य, बौद्ध साहित्य ,जैन साहित्य ।
ब्राह्मण साहित्य
ब्राह्मण साहित्य से भारत के इतिहास के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होता है । ब्राह्मण साहित्य के अन्तर्गत सर्वप्रथम वैदिक साहित्य आता है। वैदिक साहित्य में ऋग्वेद प्राचीन है, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद तिथि के अनुसार ऋग्वेद के बाद आते हैं।
कालान्तर में इन चारों वेदों के ऊपर टीकायें लिखी गई जिनको ब्राह्मण ग्रन्थों के रूप में जाना जाता है ।शतपथ ब्राह्मण ,तैत्तिरीय ब्राह्मण प्रमुख ब्राह्मण ग्रन्थ हैं।
आरण्यक और उपनिषद् मूलरूप से ब्राह्मण-ग्रन्थों के अंग हैं किन्तु कालांतर में ये स्वतंत्र ग्रन्थों के रूप में प्रतिष्ठित हुए। ऋग्वेद के अध्ययन से तत्कालीन समाज का जो चित्र उभरता है उसे इतिहासकार पूर्व-वैदिक युग की संज्ञा प्रदान करते हैं। अन्य तीन वेदों तथा ब्राह्मण गन्थों एवं उपनिषदों से समाज के विषय में जो विवरण मिलता है उसे उत्तर वैदिक युग के नाम से जाना जाता है।
इसी के अंतर्गत हम उन ग्रन्थों को ले सकते हैं जिन्हें सामान्य रूप-से वेदांग कहा जाता है। वेदांग के अन्तर्गत शिक्षा अथवा शुद्ध उच्चारण से सम्बन्धित शास्त्र। कल्प जिनमें यज्ञ विधि-विधान दिये गये होते है।निरुक्त अर्थात् शब्दों की उत्पत्ति और रचना का शास्त्र व्याकरण अर्थात् शुद्ध भाषा बोलने व लिखने का शास्त्र। छन्द से सबंधित शास्त्र तथा ज्योतिष, नक्षत्र से सम्बन्धित शास्त्र कहा जाता है
प्राचीन भारत के इतिहास में बौद्ध ग्रन्थ का योगदान
छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में प्राचीन भारत में जो धार्मिक आन्दोलन हुआ। उसके अंतर्गत बौद्ध और जैन धर्मों का उदय हुआ। प्राचीन समय में इन धर्मों से सम्बंधित कई ग्रंथो की रचना हुई। जिनमे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी भरी पड़ी हैं। बौद्ध, गन्थों, में सबसे पहले जातक ग्रन्थों का स्थान आता है। जातक कथाओं में बुद्ध के पूर्व जीवन की कथायें दी गई हैं और इनमें से कुछ कथायें छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के पहले के जन-जीवन के बारे में जानकारी मिलती है।
प्रारंम्भिक बौद्ध ग्रन्थ
प्रारंम्भिक बौद्ध ग्रन्थ पालि भाषा में लिखे हुए हैं। बुद्ध के वचनों का संकलन तीन ग्रन्थों के अन्तर्गत हुआ जिन्हें सामूहिक रूप से त्रिपिटकं की संज्ञा दी गई ये तीन पिटक हैं-विनय पिटकं, सुत्त पिटक एवं अभिधम्म पिटक। त्रिपिटंक का रचना काल तथा इनमें प्राप्त सूचनओं का समय मुख्य रूप से छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व तथा तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व के बीच का माना जाता है।
पालि ग्रन्थों में एक अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथ मिलन्दपज्हों (मिलिन्द-प्रश्न) हैं। इसमें यूनानी शासक मिनेन्डर, जिसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था तथा बौद्ध आचार्य नागसेन के बीच हुए वार्तालाप का वर्णन दिया गया है।
दीपवंश और सिंहली इतिहासकार महानाम द्वारा रचित महावंश लंका में लिखे गये बौद्ध ग्रन्थ हैं। और इनमे प्राचीन काल के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक विवरण सुरक्षित मिलतें हैं। संस्कृत भाषा में लिखे महत्त्वपूर्ण बौद्ध ग्रन्थों में महावस्तु,ललितविस्तर व बुद्धचरित हैं। इन गन्थों में तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के विषय में सूचनायें मिलती हैं।
बौद्ध धर्म के सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक विकास को समझने में भी इन ग्रंथों से बडी सहायता मिलती है। इन ग्रंथों के अतिरिक्त कई बौद्ध ग्रन्थ संस्कृत में भी लिखे गये | इनमें महावस्तु, ललितविस्तार,बुद्ध-चरित्र, सौंदरानन्द, दिव्यादान, मंजूश्री-मूलकल्प का वर्णन मिलता हैं।महावस्तु महात्मा बुद्ध के जीवन के बारे है।
ललितविस्तार में बुद्ध को दैवी शक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए उंनके अदभुत क्रियाकलापों का वर्णन है। कनिष्क के समकालीन महाकवि अश्वघोष बुद्ध चरित्र एवं सौन्दरानन्द-बुद्ध के जीवन तथा सिद्धान्तों का उल्लेख करते हैं।
जैन ग्रन्थ
अधिकांश जैन ग्रन्थ अप्रकाशित रहे और प्राचीन भारत के इतिहास लेखन में इनका उपयोग बहुत कम रहा। किन्तु धीरे-धीरे इतिहास लेखन में इनका अधिक उपयोग होने लगा है। प्रारम्भिक जैन,ग्रन्थ अंग नाम से जाने जाते हैं और इनकी संख्या 11 अथवा 72 है।इनमें उपलब्ध विवरण अत्यन्त पहले के ऐतिहासिक स्थिति का वर्णन हैं। आचारांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र,कल्पसूत्र, भगवती महत्त्वपूर्ण प्राचीन जैन ग्रन्थ हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थ हेमचन्द्र रचित परिशिष्टपर्वन है।कथाकोष,लोकविभाग तथा पुण्याश्रव-कथाकोष महत्त्वपूर्ण जैन गन्थ हैं।
रामायण एवं महाभारत
प्राचीन भारत के इतिहास के बारे पूर्ण रूप से जानने के लिए रामायण और महाभारत बहुत ही महत्वपूर्ण महाकाव्य हैं । सामान्य रूप से इन्हें उत्तरवैदिक युग के जन-जीवन पर प्रकाश डालने वाले प्रन्थों के रूप में लिया जाता है। इन दोनों ग्रन्थों के अध्ययन से यह बात स्पष्ट है कि इन गन्थों के सभी अंश किसी एक व्यक्ति द्वारा अथवा किसी एक समय विशेष में न लिखे होकर विविध समयों पर लिखे गये । जो भी हो इन ग्रन्थों का महत्त्व उनकी ऐतिहासिकता में निहित न होकर इस बात में निहित है कि भारतीयों के लिए ये ग्रन्थ प्रेरणा के स्रोत रहे हैं।
प्राचीन भारतीय किन आदर्शों और मूल्यों को प्रतिष्ठा प्रदान करते थे, विविध सामाजिक सम्बन्धों के विषय में वे क्या वांछनीय और क्या अवांछनीय मानते थे, विशिष्ट परिस्थिति से कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के सम्बन्ध में उनके क्या धारणायें थीं, इनके बारे में और कोई भी ग्रंथ इतनी व्यापक जानकारी नहीं देता जितना कि रामायण और महाभारत।
पुराण
प्राचीन भारत का इतिहास के बारे में हमें पुराणों से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होता है।
मुख्य पुराण संख्या में 18 हैं जिनमें मत्स्य पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, वामन पुराण, कर्म पुराण प्रमुख हैं। इनके आधार पर पुराण सर्ग (आदि सृष्टि), प्रतिसर्ग (प्रलय के पश्चात् पुन: सृष्टि), वंश (देवता तथा ऋषियों के वंश ), मन्वन्तर(कल्पों के महायुग ) तथा वंशानुचरित (राजाओं तथा शासकों का इतिहास)। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से पुराणों का वंशानुचरित नामक भाग विशेष रूप में उल्लेखनीय है। शुरुआत में पुराणों में दिये गये वर्णनों को विद्वान् बहुत अधिक प्रामाणिक नहीं मानते थे।
इसका कारण यह था कि पुराणों में कभी-कभी बडे अतिरंजनात्मक विवरण और अविश्वसनीय समयावधियाँ दी गई मिलती हैं किन्तु यह उल्लेखनीय है कि कलियुग (अर्थात् ऐतिहासिक युग) के प्रसंग में दी गई संख्यायें और विवरण पूर्ण रूप से सत्य हैं और सामान्य रूप से विद्वान् पुराणों की प्रमाणिकता अधिक विश्वास करने लगे हैं और उनमें दिये गये विवररणों को अपने लेखन के उपयोग में अधिकाधिक प्रयोग करने लगे हैं। पुराणों में एक अध्याय का नाम भुवनकोश मिलता है जिसमें भारत के भूगोल के बारे में जानकारी मिलती है।
लौकिक साहित्य(प्राचीन भारत का इतिहास)
कौटिल्य का अर्थशास्त्र इस श्रेणी के अन्तर्गत आने वाला सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इससे मौर्यकालीन प्रशासन पर पर्याप्त प्रकाश पडता है। पाणिनि द्वारा लिखी गई अष्टाध्यायी तथा पतंजलि द्वारा इस पर लिखा गया महाभाष्य व्याकरण ग्रन्थ हैं किन्तु ये कई महत्वपूर्ण र्ऐतिहासिक सूचनायें प्रदान करता हैं।
डा.वासुदेव शरण ने अष्टाध्यायी के आधार पर पाणिनिकालीन भारत नामक पुस्तक लिखी है जिसमें तत्कालीन समाज के बारे में व्यापक चित्रण मिलता है। गार्गी संहिता में भी यवन आक्रमण के बारे में पता चलता हैं। तमिल ग्रन्थ पुरूनानूरू तथा मणिमेकलाई की गणना भी इसी श्रेणी के साहित्य में रखा जाता है । इसी में उन नाटक ग्रन्थों को लिया जा सकता है जिनमें मुख्य कथानक ऐतिहासिक है।
कालिदास द्वारा रचित मालविकाग्निमित्रम् ऐतिहासिक नाटक ग्रन्थ है जिसमें शृंग शासक पुष्यमित्र तथा उसके पुत्र अग्निमित्र प्रमुख ऐतिहासिक पात्र हैं।
विशाखदत्त द्वारा लिखित मुद्राराक्षस नामक ग्रन्थ गुप्त काल में लिखा गया और इसमें मौर्यों के प्रारम्भिक इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है। तथा एक अन्य नाटक ग्रन्थ देवोचन्द्रगुप्तम है। जो गुप्त शासक चन्द्रगुप्त 2 के बारे में लिखा गया है। हर्ष द्वारा रचित नागानन्द, रत्नावली तथा प्रियदर्शिका नामक नाटक सातवीं शताब्दी के इतिहास तथा सांस्कृतिक जीवन पर पर्याप्त प्रकाश डालती है।
प्राचीन भारत का इतिहास में विदेशी विवरण का योगदान
प्राचीन भारत का इतिहास के सम्बन्ध में कुछ जानकारी विदेशी लेखकों तथा समय-समय पर यहां आये यात्रियों के विवरण से प्राप्त होता हैं। इनमें से अधिकांश सुचनायें समसामयिक होने के कारण विशेष महत्त्व रखती हैं।
भारतीयों के साथ पहला सम्पर्क ईरानियों के साथ हुआ, सबसे पहले यूनानियों ने प्राचीन भारतीय इतिहास में अपनी रुचि दिखाई, प्राचीन यूनानी लेखकों में सबसे महत्त्वपूर्ण हेरोडोटस इतिहास का जन्मदाता (484-425 ई. पूर्व) है जिसने हिस्टोरिका नामक पुस्तक लिखी । इस पुस्तक में पश्चिमोत्तर भारत के राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति का चित्रण मिलता है।
सिकन्दर के बारे में
सिकन्दर के भारत अभियान के साथ नियार्कस, आनिसिक्राइटुस तथा अरिस्टोब्रुलुस नामक लेखक आये थे । इन लेखकों के लेख अब उपलब्ध नहीं हैं किन्तु यूनानी लेखकों ने इनका संदर्भ दिया । इन लेखकों में कर्टियस, डियोडोरस, स्टरैबो, एरियन तथा प्लूटार्क उल्लेखनीय हैं। इन साक्यों का महत्त्व इसी से स्पष्ट है कि सिकन्दर के आक्रमण के विषय में हम केवल इन्हीं के आधार पर जानते हैं, किसी भी भारतीय साक्ष्य में इस घटना का उल्लेख नहीं मिलता।
कालान्तर में चन्दगुप्त मौर्य के दरबार में सेल्युकस का यूनानी राजदूत मेगस्थनीज आया जिसने इंडिका नामक पुस्तक लिखी यह पुस्तक भी उपलब्ध नहीं है, किन्तु एरियन, अप्पियन तथा जस्टिन में इस पुस्तक उदाहरण सुरक्षित मिलते हैं।। प्लिनी (23-79 ई) की Natural History एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोत है। मिश्र का मठधारी कास्मस इण्डिकोप्लुटस 547 ई. में भारत आया और उसने “द क्रिस्चियन ट्रोपोग्रैफी आफ द युनिवर्स“ पुस्तक लिखी है।
चीनी ग्रंथ
चीनी भाषा में लिखे ग्रंथों के प्रसंग में सबसे पहले चीन के प्रथम महत्त्वपूर्ण इतिहासकार शु-मा-चियन (100 ई. पूर्व) का नाम लिया जा सकता है। इसकी पुस्तक में मध्य एशियायी जातियाँ का विवरण मिलता है। गुप्त काल में फाह्यान (309 -414 ई) तथा हर्ष के समय युवानच्चांग (629-645 ई) नामक चीनी यात्री बौद्ध ग्रन्थों के संग्रह करने के उद्देश्य से भारत आये ।
उनके यात्रा विवरण तत्कालीन इतिहास के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण स्रोत हैं। 13 वीं शताब्दी के मत्वानलिन की कृतियों से भी बहुत कुछ पता चलता है। तारानाथ नामक तिब्बती लेखक ने कंग्युर और तंयुर ग्रंथ लिखे, जिनमें भारतीय इतिहास की कुछ घटनाओं के बारे में जानकारी है।
इसके पश्चात् प्राचीन भारत का इतिहास लेखन में मुस्लिम पर्यटकों का उल्लेख किया जा सकता है। इनमें अलबेरूनी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। कुछ मुस्लिम लेखक जिन्होंने भारत के विंषय में लिखा है। अलबेरूनी से भी प्राचीन है जैसे अल्बिलादुरी (किताब फुतूह अल-बुल्दान),सुलेमान और अल् मसूदी अलबेरुनी महमूद के आक्रमणों में साथ था। 1030 में उसने`तहकीक-ए-हिन्द` नामक पुस्तक लिखी जो तत्कालीन प्राचीन भारत के सामाजिक और राजनीतिक स्थिति तथा धर्म एवं दर्शन पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालती है।
मुस्लिम यात्री
मुहम्मद तुगलक के समय में यहां अफ्रीकी मुस्लिम यात्री इब्नबतूता आया। उसके यात्रा विवरण का नाम रेहला है जो अरबी भाषा में है। जिसमें प्राचीन भारत के भूगोल तथा सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन का वर्णन मिलता हैं है। तुगलक काल में भारत पर तिमूर ने आक्रमण किया। उसने अपने संस्मरण लिखे जिसका नाम तुजुक-ए-तिमूरी है।
ये विदेशी विवरण तत्कालीन धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक तथा सामाजिक स्थिति पर अत्यन्त प्रकाश डालते हैं। इनमें से कुछ प्राचीन भारत के इतिहास के तिथि क्रम को समझाने में बडे सहायक सिद्ध हुए हैं किन्तु यह उल्लेखनीय है कि विदेशी होने के कारण कभी-कभी ये लेखक भारतीय समाज को ठीक-ठीक समझने में सफल नहीं हो पाये हैं
और इस कारण इनके विवरणों को कुछ सावधानी से उपयोग में लाने की आवश्यकता है। इन सभी साक्ष्यों से ज्ञात होता है की प्राचीन भारत(प्राचीन भारत का इतिहास) कितना विकसित रहा होगा ।
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