वैदिक सभ्यता का काल, वैदिक काल ,vaidik sabhyata in hindi
वैदिक साहित्य
वैदिक काल – वैदिक साहित्य केवल भारतीय आर्यों का नहीं यह पूरे मनुष्य जाती का का सबसे प्राचीन साहित्य है । वेद का अर्थ है ज्ञान और हिंदुओं की मान्यता के अनुसार इसकी रचना मनुष्यों के द्वारा नहीं किया गया है । माना जाता है की वैदिक सभ्यता काल मे वेदो की रचना हुई थी । इनको ऋषियों ने इन्हें ईश्वर से सुना है ।
इसी कारण वेदों को श्रुति भी कहा जाता है । वेद संख्या मे चार है –
- ऋग्वेद
- सामवेद
- यजुर्वेद
- अर्थवेद
प्रत्येक वेद के चार भाग है । मंत्र अथवा संहिता भाग प्रत्येक वेद की अपनी संहिता है ।
ब्राह्मण ग्रंथ
ब्राह्मण ग्रंथ गद्य मे लिखे गए है । इसमें अर्थों के विचार के के साथ साथ उनके प्रयोग का विधान बताया गया है ।
आरण्यक
ब्राह्मण ग्रंथों के कुछ भाग बहुत पवित्र माना जाने लगा और उन्हें एकांत में पढ़ने योग्य माना जाने लगा । जिस कारण इन्हें आरण्यक कहा गया ।
उपनिषद- सामान्यतः ये आरण्यकों के अंतिम भाग है और इनमें अध्यात्म विद्या की चर्चा है ।
वैदिक साहित्य के ग्रंथों में ऋग्वेद संहिता को सबसे प्राचीन माना जाता है । इसमें 1028 सूक्त है । जो दस मण्डलों अथवा 8 अष्टकों में विभक्त है । इन सूक्तों में विश्वामित्र, गृत्स्मद , अत्रि, वामदेव , भारद्वाज, वसिस्ट ऋषियों की रचना है ।
इसके दो ब्राह्मण ग्रन्थ है ।
- ऐतरेय ब्राह्मण
- कौषीतिक ब्राह्मण
इससे सम्बंधित दो उपनिषद भी इसी नाम से मिलते है । सामवेद में 75 मन्त्रों को छोड़कर अन्य सभी ऋग्वेद से लिए गए है ।
यजुर्वेद में यज्ञ विधियों का विवेचन है । इसके दो प्रकार मिलते है –
- शुक्ल यजुर्वेद
- कृष्ण यजुर्वेद
इन वेदों की कई शाखाएँ है – (1) काठक संहिता (2) मैत्रायणी संहिता (3) वजसनयी संहिता । अर्थवेद की दो शाखाएँ है – शौनकीय तथा पैपलवाद । इस वेद में वशीकरण , जादू- टोना, मित्र लाभ, शत्रु- मारण आदि से संबंधित मंत्र मिलते है ।
वेदों की रचना एवं काल
वैदिक सभ्यता में वेदों की रचना के काल निर्धारण पर विद्वानों के अलग अलग मत है । मैक्समूलर बुद्ध की तिथि 600 ई पूर्व को अपना विवेचन बिंदु माना है । जिसके पहले प्रमुख उपनिषद रचे जा चुके थे ।
इसके बाद मैक्समूलर ने ऋग्वेद की रचना काल 1000 ई. पूर्व, 1500 ई. पूर्व, 2000 ई. पूर्व और 3000 ई. पूर्व भी हो सकता है इसके बारें में कोई निश्चित अनुमान नहीं लगाया जा सका है । परवर्ती विद्वानों ने 1200 ई. पूर्व को ऋग्वेद का रचना काल माना है ।
वेदों की रचना काल के ऊपर विचार के लिए नई दृष्टि एशिया माइनर में बोगाजकोई नामक स्थान से प्राप्त एक अभिलेख मिला है । यह अभिलेख 1400 ई. पूर्व का है ।
इसमें हितताइत जाती तथा मितन्नी राजाओं के बीच हुए संधि का उल्लेख है । संधि के साक्षी के रूप में जिन देवताओं का उल्लेख है , उनमे ऋग्वेद के इंद्र, वरुण, मित्र है ।
इस प्रकार 1400 ई. पूर्व में इन देवताओं का एशिया माइनर में पूजा जाना प्रमाणित होता है । इस प्रकार वैदिक मन्त्रों की रचना का समय निर्धारित कर सकना कठिन है । और इसका अंतिम तिथि 800 ई. पूर्व तथा पूर्ववर्ती सीमा के आस पास माना जा सकता है ।
वैदिक रचना का मूल स्थान
वैदिक सभ्यता के संथापकों को ऋग्वेद में आर्य कहा गया है जिसका अर्थ है – सुसंस्कृत, कुलीन अथवा श्रेष्ट । तथा कुछ विद्वानों के अनुसार भारत का इतिहास आर्यों का इतिहास समझा जाता है ।
भारत के मूलनिवासी कौन थे
वैदिक सभ्यता के निर्माता कहाँ के निवासी थे । इसमें विद्वानों का अलग अलग मत है । कुछ विद्वान आर्यों को भारत का निवासी नहीं मानते । भारतीय विद्वानों का मत है की आर्य कहीं बहार से नहीं आये अपितु वे बहार के रहने वाले नहीं थे । इनके अनुसार आर्यों का मूलस्थान सिंध और पंजाब प्रदेश था .
ऋग्वेद में आर्यों के कहीं बाहर से आने को कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं । इस कारण विद्वान आर्यों को भारत का मूल निवासी माना जाता है ।
ऋग्वेद के आधार पर आर्यों का भारत आगमन 2500 ई . पूर्व से 1500 ई .पूर्व के मध्य माना जाता है । वैदिक सभ्यता काल में आर्यों ने सिंध और पंजाब तक अपना राज्य विस्तृत कर इस प्रदेश को ब्रम्हाव्रत नाम दिया । इसके बाद यह सभ्यता पूर्वी राजस्थान, थानेश्वर, मथुरा तक अपना राज्य विस्तार कर लिया और इसको ब्रम्हऋषि देश के नाम से जाना जाने लगा । इसे मध्यदेश के नाम से भी जाना जाता है ।
वैदिक सभ्यता काल में आर्य सभ्यता का भौगोलिक परिवेश अफगानिस्तान से लेकर गंगा के दोआब तक फैला हुआ था । ऋग्वेद में अफगानिस्तान की नदियों का भी उल्लेख मिलता है ।
आर्य तथा दास-दस्यु
ऋग्वेद में दास और दस्यु की चर्चा आर्यों के विरोधियों के रूप में मिलता है । एक मंत्र में कहाँ गया है की इंद्र में दस्युयों को मारकर आर्यों की रक्षा की । तथा दूसरे मंत्र में कहाँ गया है की इंद्र ने दास वर्ण को मारकर नीचे गुहा में भगा दिया था ।
इन्हें कृष्णयोनि( काले रंग का ), अनास ( चिपटी नाक वाले ), मृध्रवाच ( जिनकी भाषा न समझा सके ) कहा जाता था ।
ये दास-दस्यु कौन थे । इनके बारे में विद्वानों के अलग अलग मत है कई के अनुसार ये यंहा के मूल निवासी थे । इन लोगों तथा आर्यों के बीच में बहुत अंतर था ।
पंडित क्षेत्रेश चंद्र का कहना है की ये शब्द असुरों और राक्षसों के बारे में ज्ञात होता है । ये भी आर्य थे किन्तु वे असभ्य थे, लूटमार करते थे और सभ्य आर्यों के धार्मिक कृत्य को नहीं मानते थे ।
इन सबसे स्पष्ट हो जाता है कि आर्य यँहा के मूलनिवासी थे तथा दास – दस्यु से सभ्य थे । ऋग्वेद में किसी के मूलनिवासी होने का प्रमाण नहीं मिलता ।
समाज व्यवस्था
वैदिक सभ्यता काल में आर्य लोगों के संगठित जीवन की उच्चतम इकाई जन था । इसके लिए राष्ट्र शब्द का भी प्रयोग हुआ है । जन के सदस्यों को विश कहाँ जाता था । आर्य लोग कई जनों में बंटे हुए थे । जिनमे पाँच प्रमुख जन थे – अनु, द्रुहा, यदु, तुर्वस तथा पुरु ।
इनके अतिरिक्त और कई जन थे । एक जन के अंदर कई ग्राम होते थे और एक ग्राम में कई परिवार होते थे । कुल का प्रमुख कुलपा कहलाता था ।
विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद में उल्लेखित पिप्रु, धुनि, चुमुरि, शम्बर नाम आर्य लोगों के मुखियाँ के नाम थे ।