बौद्ध धर्म ,संस्थापक, सिद्धांत

बौद्ध धर्म संस्थापक | baudh dharm in hindi

गौतम बुद्ध के द्वारा 6 वी शताब्दी में बौद्ध धर्म का स्थापना किया गया था । बौद्ध धर्म क्या हैमहावीर के समान बुद्ध भी वेदों की प्रामाणिकता मे विश्वास नहीं करते थे । उनका किसी ईश्वर मे विश्वास नहीं था । उनके अनुसार  सृष्टि अनादि और अनंत है । वे कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत मानते थे ।

बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म

कर्म ही मनुष्य का जनक है और संसार मे अलग अलग दिखने वाला भेद कर्म के ही कारण है । प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म का फल प्राप्त करता है । और इसमे माता,पिता,भाई, पुत्र ,पत्नी या मित्र कोई भी साझा नहीं कर सकता ।

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बुद्ध क्षणिकवाद अथवा अनित्यता के सिद्धांत पर विश्वास करते थे । प्रत्येक वस्तु निरंतर परिवर्तनशील है । परिवर्तनशीलता की तीव्र गति के कारण यह दिखाई नहीं पड़ता ।

जैसे नदी के एक जल बिन्दु का स्थान कब दूसरा जल बिन्दु ले लेता है यह दिखाई नहीं पड़ता और केवल जल प्रवाह दिखाई पड़ता है, ऐसे ही संसार की वस्तुओं के बारे मे सोचना चाहिए ।

सिद्धांत

बुद्ध के अनुसार जीवन अथवा संसार तथा दुख को पर्यायवाची शब्दों के रूप मे लिया जा सकता है । अपने पूर्व जन्म मे व्यक्ति ने अनंत दुख भोगे है । और इसका यह दुख भोग तब तक चलता रहेगा जब तक की उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती ।

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भगवान बुद्ध ने कहा है की यदि एक ओर चारों समुद्रों का जल रखा जाय और दूसरी ओर प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अनंत जन्मों के बहाए गए अश्रुओं को तो अश्रुओं का परिणाम चारों समुद्रों के जल से अधिक होगा । यह संसार दुखमय है और यह बंधन है ।

इंद्रिय सुखों और भोगों के पीछे पड़ा हुआ मनुष्य इस बंधन से छूट नहीं पाता । संसार की तुलना उन्होंने आग मे जलते हुए घर से की है ।

  • बुद्ध तर्क शक्ति पर विशेष बल देते थे । उन्होने बार बार कहा की कोई बात केवल इसलिए नहीं स्वीकार करनी चाहिए की इसे कोई  कह रहा है अथवा यह किसी ग्रंथ मे लिखा है अथवा परंपरा ऐसा कहता है ।
  • बुद्ध का दृष्टिकोण व्यवहारिक था । वे आध्यात्मिक प्रश्नों में पड़ना ठीक नहीं मानते थे । आत्मा क्या है ? संसार की उत्पति कब हुई ? मरने के बाद मुक्त व्यक्ति कहाँ  जाता है ? इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढना निरर्थक है ।
  • बुद्ध ने कहा है व्यक्ति संसार रूपी दुःख में है ।

अर्थात सत्य को जान कर इससे छुटकारा पाने के उपाय ढूंढना चाहिए ।

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सारनाथ के प्रथम उपदेश में ही बुद्ध ने चार आर्य सत्य का उपदेश दिया था ।

दुःख आर्य सत्य 

बुद्ध के अनुसार संसार में दुःख ही दुःख है । जन्म ,रोग,मृत्यु, प्रिय व्यक्ति से बिछड़ना, अप्रिय व्यक्ति से मिलना यह सब दुःख है । संसार में जन्म लेने का अर्थ ही दुःख के बंधन में पड़ना है जो सुख होता है वास्तव में वह दुःख ही है । क्योकि संसार की सभी वस्तुए अस्थायी है जिस कारण सुख का विषय कभी न कभी हमसे अलग होता होता है और हम पुनः दुखी हो जाते है ।

दुःख समुदय 

समुदय का अर्थ है कारण यह कारण है , इच्छाएँ । मनुष्य की इच्छाएँ कभी संत नहीं होती , एक इच्छा पूरी हो तो दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है । मनुष्य की स्थिति ऐसी है कि उसकी इच्छाएँ पूरी नहीं हो सकती और वह परिणाम स्वरुप फिर से दुखी हो जाता है । इसका मूल कारण अविद्या है । जिसके प्रभाव से व्यक्ति संसार की वस्तुओं में व्याप्त कमी को देख नहीं पाता और इनके भोग के पीछे भागता रहता है ।

दुःख निरोध 

निरोध का अर्थ है हटाना । बुद्ध कार्य कारण का सिद्धांत मानते है । यदि दुःख का कारण इच्छा है तो  इच्छा के नाश से दुःख का भी नाश हो जायेगा । दुःख का पूर्ण  विनाश ही अधयत्मिक साधना का उद्देश्य है ।

दुःख निरोध का मार्ग  

बुद्ध ने उस मार्ग को भी बताया जिस पर चलकर दुःख का नाश संभव है । इसके आठ अंग है । जिस कारण इसे अष्टांगिक मार्ग कहते है ।

बौद्ध धर्म के अष्टांगिक मार्ग

सम्यक् दृष्टि

इसमें सम्यक का अर्थ है उपयुक्त या ठीक – ठीक ।

इससे तात्पर्य सभी प्रकार के ( कायिक, वाचिक, मानसिक )अच्छे और बुरे कर्मों का ज्ञान है । कायिक बुरे कर्म है हिंसा चोरी और व्यभिचार । वाचिक बुरे कर्म है  मिथ्या भाषण, चुगली, कटु वाणी बोलना और बकवास । मानसिक बुरे कर्म है लोभ , प्रतिहिंसा और मिथ्या । इस प्रकार संसार के स्वरुप का ठीक ठीक ज्ञान भी इसी  के अंतर्गत आता है ।

  • सम्यक् संकल्प

इससे  तात्पर्य उस संकल्प से है जिसमे भ्रम, हिंसा और प्रतिहिंसा की भावना न हो ।

  • सम्यक् वाक्

इसका अर्थ है झूट, चुगली , कटु भाषण से बचना और सत्य तथा मधुर वाणी का प्रयोग करना ।

  • सम्यक् कर्म

इसमें  हिंसा चोरी और व्यभिचार रहित कर्म आते है ।

  • सम्यक् अजीव

शरीर चलने के लिए जीविका के बुरे साधनों का परित्याग कर अच्छे साधनों को अपनाना सम्यक अजीव है । जीविका के सभी साधन जिनमे प्राणी हिंसा होती हो वो बुरे कर्म कहे जायेंगे ।

बुद्ध ने बुरे कर्मो  के  साधनों में  –

  • हथियार का व्यापार
  • प्राणी का व्यापार
  • मांस का व्यापार
  • मदिरा का व्यापार
  • विष का व्यापार
  • सम्यक् व्यायाम

इन्द्रियों पर सयंम रखते हुए बुरी भावना को न आने देना और अच्छी भावना को ग्रहण करना ।

  • सम्यक् स्मृति

इससे तात्पर्य मन को ठीक विषय पर लगाना ।

  • सम्यक् समाधि

मन को एकाग्र करना जिससे मन में उत्पन्न बुरे भाव नष्ट हो जाते है ।

मध्यम मार्ग

बुद्ध ने अपने मार्ग को मध्यम मार्ग कहा है । इसका अर्थ है अति का सर्वत्र विरोध । बुद्ध ने देखा कि जहाँ कुछ लोग इंद्रिय सुख को ही सब कुछ मानकर सांसारिक भोग विलासों मे ही मग्न रहते है।

बुद्ध के अनुसार मनुष्य को न तो केवल भोग विलास मे फंस जाना चाहिए और न ही शरीर को अनावश्यक कष्ट देना चाहिए ।

बौद्ध धर्म मे इसे वीणा के तारों की उपमा द्वारा समझाया गया है । वीणा के तार जब बहुत ढीले या बहुत कड़े कसे हुए रहते है तो स्वर ठीक नहीं निकलते है । ऐसे ही शरीर की इन्द्रियों को न तो एकदम ढीला छोड़ देना चाहिए और न ही बहुत अधिक कसना चाहिए ।

बौद्ध धर्म के दर्शनिक सिद्धांत

प्रतीत्य समुत्पाद 

यह बौद्ध धर्म का एक बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांत है इसके अनुसार प्रत्येक उत्पाद का कोई न कोई कारण होता है । इसके होने पर यह होता है इसके उत्पन्न होने पर यह उत्पन्न होता है । इसके अभाव में यह नहीं होता इसके निरुद्ध होने पर इसका निरोध हो जाता है । यह संसार कार्य कारण श्रृंखला में चलता है और इसकी व्याख्या के लिए ईश्वर जैसी किसी सत्ता का अस्तित्व मनाने की आवश्यकता नहीं है।

कार्य कारण के इस सिद्धांत को विकसित रूप में बारह कड़ियों द्वारा समझाया गया है ।

  • अविद्या
  • संस्कार ( कर्म वासना )
  • विज्ञान
  • नाम रूप
  • षडायतन( छः घर पाँच इन्द्रियाँ और मन )
  • स्पर्श ( इन्द्रियों का इन्द्रिय विषयों के साथ सम्पर्क )
  • जाति
  • भव
  • उपादान
  • तृष्णा
  • वेदना
  • दुःख या संसार

यह सिद्धांत दुःख अथवा संसार के विनाश के बारे में पूर्ण रूप से व्याख्या प्रस्तुत करता है ।

अनात्मवाद

संसार का विश्लेषण करते हुए बुद्ध ने कहा की सब अनात्म है । मनुष्य कई तत्वों का जोड़ है । इनमे से कोई भी तत्व स्थाई नहीं है । मृत्यु के  बाद वे तत्व अलग अलग हो जाते है । संसार की सभी चीजें नाश होने वाली है । केवल प्रवाह में वो स्थाई दिखाई पड़ती है । और वयक्ति संसार के सभी पदार्थों से चल रहे निरंतर परिवर्तनों को नहीं देख पाता और उसे स्थाई मान लेता है ।

निर्वाण

इसे हिन्दू धर्म में मोक्ष और जैन धर्म ने कैवल्य कहते है । इस स्थिति को बौद्ध धर्म में निर्वाण कहा जाता है । इसका शाब्दिक अर्थ है बुझ जाना । इस प्रकार नकारात्मक रूप में यह वह स्थिति है । जिसमे सभी इच्छाएं समाप्त हो जाती है और सभी दुखों का नाश हो जाता है । सकारात्मक रूप में यह परम सुख और परम शांति की स्थिति है । नैतिक आचरण और ध्यान तथा ज्ञान से निर्वाण की प्राप्ति होती है ।

बौद्ध धर्म के नीति शास्त्र

बौद्ध धर्म के अनुसार मोक्ष के लिए किसी देवी सत्ता की कृपा से संभव नहीं है। व्यक्ति अपने ही कर्मों के कारण दुख में है और अपने ही कर्मों से वह इस स्थिति से छुटकारा पा सकता है। व्यक्ति को सदैव शुभ कर्म करने चाहिए। कर्म अच्छा है या बुरा इसका मानदंड यह है कि वह किसी भावना या अभिप्राय से किया गया हो ।

बुद्ध का विचार था की निरंतर प्रयास करते रहने पर व्यक्ति आत्म सुधार कर सकता है।पहले वयक्ति को  इंद्रिय विषयों से बचने का प्रयास करना चाहिए। इस साधना का महत्वपूर्ण पक्ष है मन के ऊपर नियंत्रण। मन चंचल है और स्वभाव से बार-बार भोगो की ओर भागता है। इसे शुभ विषयों पर लगाने का प्रयास करना चाहिए। बुद्ध का मार्ग मध्यम मार्ग है।

बौद्ध संघ

बौद्ध धर्म में संघ का बहुत बड़ा स्थान है प्रत्येक बौद्ध यह बात कहकर अपने विश्वास की अभिव्यक्ति करता है । ‘ बुद्धं शरणं गच्छामि , धर्म शरणं गच्छामि , संघ शरणं गच्छामि ‘( मैं बुद्ध की शरण जाता हूं , मैं धर्म की शरण जाता हूं , संघ की शरण में जाता हूं )

बुद्ध ने पहले संघ में स्त्रियों को प्रवेश नहीं दिया था पर बाद में जब जब बचपन में उन्हें पहले वाली महा प्रजापति गौतमी ने भिक्षुणी बनने का आग्रह किया तब से उन्होंने स्त्रियों को प्रवेश देने लगे। संघ में प्रवेश के लिए 15 वर्ष की आयु निर्धारित की गई थी । इसमें सभी वर्ण और जाति के लोग प्रवेश पा सकते थे । पर कुछ कठिन रोगों से ग्रस्त , अनाचार कर्मों के करने वाले तथा कुछ अपराधों से दंडित लोगों को प्रवेश का अधिकार नहीं था। संघ का स्वरूप लोकतांत्रिक था।

बौद्ध संगीतियां

बुद्ध के वचनों को संकलित करने के उद्देश्य से समय-समय पर व्यापक भिक्षु सभाएँ बुलाई गई। इनको संगीतियां कहते हैं बौद्ध परंपरा में चार प्रमुख संगीतियां मिलती है। प्रथम बौद्ध संगीत बुद्ध के देह त्याग ने के तुरंत बाद बुलाई गई । जिसमे पहली बार बुद्ध वचनों को संकलित किया गया । दूसरी संगीत 100 वर्ष के बाद वैशाली में हुई । तीसरी बौद्ध संगीत अशोक के शासन काल में और चौथी संगीत कुषाण शासक कनिष्क के शासन काल में बुलाई गई ।

बौद्ध संप्रदाय

बौद्ध संघ कई संप्रदायों में विभक्त हो गया अशोक के समय तक यह 18  संप्रदाय में बट चुका था आगे चलकर दो प्रमुख भेद बने हीनयान और महायान । हीनयान महायानियों का दिया गया नाम है।  यान शब्द का अर्थ है सवारी । महायान का कहना है कि उनका अपना मत या धर्म बड़ी सवारी है जिसमें बहुत लोग बैठकर संसार के दुखों से मुक्ति पा सकते हैं जबकि हीनयान छोटी सवारी है।

पतन

बुद्ध धर्म के विकास में महायान के बाद तांत्रिक बौद्ध धर्म की अवस्था आती है । इस रूप में यह धर्म सर्वथा अनुष्ठानात्मक हो गया , यहाँ तक कि इसमें मदिरा पान, स्त्री संसर्ग  प्रवेश हो गया जो  धर्म से कतई मेल नहीं खाते थे ।

बौद्ध धर्म के पतन के कई कारण हैं धीरे धीरे ऐसी स्थिति बन गई की बौद्ध धर्म जीवित नहीं रह सका बौद्ध संघ में अनाचार और गलत प्रवृत्ति बढ़ गई । तांत्रिक बौद्ध धर्म के कई पक्षों ने जनसाधारण में इसके लिए घृणा की भावना पैदा की।

भिक्षुणी और और भिक्षु भोग और विलास में रुचि लेने लगे जिससे लोगों में उनके प्रति श्रद्धा समाप्त हो गई  । दूसरी ओर बौद्ध धर्म में मूर्ति पूजा प्राम्भ हो गया था और मंत्र- अनुष्ठान का चलन बढ़ गया । इन्हीं कारणों से बौद्ध धर्म का अपना पृथक वयक्तित्व समाप्त हो गया । इसमें और हिन्दू धर्म में कुछ विशेष भेद नहीं रहा ।

जैन धर्म

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