जैन धर्म के संस्थापक, इतिहास, 24 तीर्थकर 

जैन धर्म जैन शब्द जिन शब्द से बना है। जिन का अर्थ होता है विजेता अर्थात जिसने इन्द्रियों को जीत लिया होजिन महावीर की एक अन्य उपाधि है जो अपनी साधना की समाप्ति और लक्ष्य की प्राप्ति के बाद प्राप्त हुई। जिसके कारण जिन के अनुनायी जैन कहलाये।

जैन धर्म के 24 तीर्थकर 

  1. ऋषभदेव (आदिनाथ)
  2. अजीतनाथ
  3. संभवनाथ
  4. अभिनंदन
  5. सुमितनाथ
  6. पद्मप्रभु
  7. सुपाशर्व नाथ
  8. चंदाप्रभु
  9. सुविधिनाथ
  10. शीतलनाथ
  11. श्रेयान्स नाथ
  12. वासुपूज्य
  13. विमलनाथ
  14. अनंतनाथ
  15. धर्मनाथ
  16. शांतिनाथ
  17. कुंथु नाथ
  18. अरनाथ
  19. मल्लिनाथ
  20. मुनिसुव्रत
  21. नमिनाथ
  22. अरिष्टनेमि (नेमि नाथ)
  23. पाशर्वनाथ
  24. महावीर(वर्धमान)

सिद्धान्त 

सामान्य विचार 

जैन सिद्धांत के अनुसार सृष्टि करने वाले किसी ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं किया जाता। उनके अनुसार सृष्टि आदि और अनंत है। सृष्टि  का क्रम एक प्रवाह के रूप में चलता रहता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने किए हुए के अनुसार अच्छे या बुरे फल की प्राप्ति करता है।

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व्यक्ति अपने कर्मो के कारण ही बंधन में पड़ता है और अपने ही प्रयासों से उसे बंधन से मुक्ति मिल सकती है।  जैन धर्म संसार की दुःखमयता को मानता है। जिससे छुटकारा इन्हीं सिंद्धान्तों पर चलकर संभव है।

जीव और अजीव

सांसारिक अस्तित्व को जैन धर्म ने जीव और अजीव दो भागों में विभक्त किया है । चेतन सत्ता को जीव और अचेतन को अजीव कहा गया है ।

चेतना जीव का विशिष्ट लक्षण है । जीव की अवधारणा वही है जो उपनिषदों में आत्मा की एकात्मकता मानी गई है, जैन धर्म बहुसंख्यक जीवों की सत्ता में विश्वास करता है ।

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जीवों के दो प्रमुख भेद है ।

  • मुक्त अर्थात वे जीव जो अपने मूल विशुद्ध स्वभाव में स्थित रहते है । और आवागमन के चक्र से स्वतंत्र है ।
  • बंध अर्थात वे जीव जो कर्म प्रभाव में अपनी मूल विशुद्धता खो चुके है । इस कारण आवागमन के चक्र के मानधाम में फंसे हुए है ।

बंधन और मोक्ष

बंधन का अर्थ है जीव का अजीव द्वारा आवरण ।  जैन धर्म में चार कषाय ( चिपचिपी वस्तु) बताया गया है । क्रोध, लोभ, मान, और माया । जब व्यक्ति को सत्य का ज्ञान न हो  और कषायों के प्रभाव में कार्य करता है। तब कर्म के रूप में भूतपूर्व जीव की ओर आकृष्ट होते है और उसे आवृत करते जाते है ।

जीव अपना मूल स्वरुप भूल जाते है और अजीव से सबंध स्थापित कर लेता है । कषायों के होने पर जीव के ऊपर कर्म रूपी अजीव का जमाव तेजी से होने लगता है । अजीव के जीव की ओर चलने की इस प्रक्रिया आस्त्रव कहा जाता है । इसी के संपन्न जीव अपना मूल स्वरूप खोकर जन्म- पुनः जन्म के चक्र में फंस  जाता है । इस स्थिति को ही बंध अथवा बंधन की अवस्था कहते है ।

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मोक्ष के लिए यह आवश्यक है कि को कर्म के बंधन से मुक्त किया जाय । इसके लिए नए कर्मो का आगमन रोकमा होता है । नए कर्मो के आगमन कि प्रक्रिया को रोकना सवंर कहलाता है । जो कर्म पहले से इकठ्ठा है उसका विनाश आवश्यक है । इसके लिए जैन धर्म तप आदि कई उपाय बताए गए है । संचित कर्मो के विनाश कि प्रक्रिया को निर्जरा कहा जाता है।

कर्मो के बंधन से सर्वथा मुक्त होने को मोक्ष कहा जाता है । इस स्थिति में जीव अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर स्वतंत्र और एकाकी विचरण करता है l

अनेकान्तवाद और स्याद्वाद

अनेकान्तवाद जैन धर्म में सत्य के स्वरूप कि अवधारणा से सबंधित है। जैन धर्म के अनुसार सत्य नानात्मक है अर्थात इसके कई पहलू है । व्यक्ति इसके किसी एक पहलू को देखता है और इसे सम्पूर्ण सत्य मान बैठता है ।

किसी भी विषय में कोई कथन असत्य अथव एक दृष्टिकोण से सत्य होता है । अतः किसी को अपने ज्ञान को पूर्ण ज्ञान और दूसरे के ज्ञान को एकदम झूठा नहीं मानना चाहिए ।

इस कथन को जैन लोग सात कथन प्रकारों के रूप में रखते है । सभी कथन के पूर्व ‘एक दृष्टि’ लगाया जाता है ।

  1. ‘है’ ।
  2. ‘नहीं है’।
  3. ‘है’ और ‘नहीं है’ ।
  4. ‘अवक्तत्य'( जो कहा ना जा सके ) ।
  5. ‘है’ और ‘अवक्तत्य’ ।
  6. ‘नहीं है’ और ‘अवक्तत्य’ ।
  7. ‘ है ‘ और ‘ नहीं है ‘ और ‘अवक्तत्य’ है

मोक्ष प्राप्ति के साधन

मोक्ष प्राप्ति के तीन प्रमुख साधन बताए गए है । जैन धर्म में इनकों त्रि – रत्न कहा जाता है ।

  • सम्यक् ज्ञान– संसार की प्रक्रिया को ठीक से जानना ।
  • सम्यक् चरित्र – मनुष्य को सदैव सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिए ।
  • सम्यक् दर्शन– इसका अर्थ है संसार के वास्तविक का बोध होना।

सदाचारी जीवन व्यतीत करने के लिए पांच व्रतों को बताया गया है ।

  1. अहिंसा -मनुष्य को मन, वाणी और कर्म तीनों में सभी के प्रति अहिंसा का भाव रखना चाहिए ।
  2. सत्य भाषण
  3. अस्तेय – किसी दूसरे की वस्तु को चोरी नहीं करना ।
  4. अपरिग्रह – वस्तुओं का संग्रह कर उनके प्रति लगाव पैदा होना।
  5. ब्रह्मचर्यं–  अर्थात पवित्रता पूर्वक जीवन बिताना।

जैन मत में किसी ऐसे ईश्वर में विश्वास नहीं है । जिसके प्रसाद या अनुग्रह से मोक्ष की प्राप्ति होती हो । प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रयासों से मोक्ष प्राप्त करता है । जैन धर्म में तपस्या पर विशेष बल दिया जाता है । जैन साधुओं को तपस्या  द्वारा शरीर को कष्ट देना आवश्यक बताया गया है ।

जैन मत के अनुसार दैनिक जीवन के कार्यों में व्यक्ति के लिए कुछ पूर्ण सावधानी बरतना आवश्यक है ।

  • ईर्या समिति – अर्थात चलने फिरने में पूर्ण सवधानी ताकि किसी जीव के प्रति हिंसा न हो ।
  • भाषा समिति – बोलने में सावधानी ।
  • एषणा समिति – शारीरिक आवश्यकताओं में की पूर्ति में सावधानी ।
  • आदान-निपेक्ष समिति – किसी वस्तु को उठाते और रखते समय सावधानी जिससे जीव हिंसा न हो जाय ।
  • उत्सर्ग समिति 

महावीर के बाद जैन धर्म 

स्वामी महावीर के बाद जैन धर्म दो सम्प्रदयों में बंट गया ।

  1. दिगम्बर -दिगम्बर का अर्थ है सर्वथा नग्न रहना
  2. श्वेताम्बर- श्वेत वस्त्र धारण करने वाले ।

दिगम्बर लोगों का साधना मार्ग अधिक कठोर है । और यह लोग मानते है की महावीर का विवाह नहीं हुआ था। जबकि श्वेताम्बर लोगों का मार्ग सरल और उदार है और ये लोग उनका विवाह मानते है और इससे एक कन्या का जन्म भी मानते है।

धर्म का प्रचार 

महावीर के समय जैन धर्म बहुत लोकप्रिय हो चूका था  और भारी संख्या में समाज के कई वर्गों के लोग उसके प्रति आकर्षित हुए थे । मगध के शासक बिम्बिसार और अजातशत्रु जैन परंपरा के पक्षधर थे । चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा जैन धर्म स्वीकार किये जाने पर इसे और बल मिला । उसके समय यह धर्म दक्षिण में फैला । दक्षिण के चालुक्य और राष्ट्रकूट वंशों के कई नरेश इस धर्म में आस्था रखते थे । गुजरात और राजस्थान में भी जैन धर्म को स्वीकार करने लगे थे । आज भी इसे मनाने वालों की संख्या यहाँ है ।

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