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जम्मू कश्मीर का इतिहास
सातवीं शताब्दी के शुरुआत में कंकोर्टक राजवंश की स्थापना हुई। इसका संस्थापक दुर्लभ वर्धन था। यह हर्षवर्धन का समकालीन राजा था और हर्षवर्धन की अधीनता स्वीकार करता था। दुर्लभवर्धन के बाद उसके तीनों पुत्रों ने क्रम से राज्य किया जिनमें तीसरा ललितादित्य मुक्तापीड एक प्रतापी शासक था।
इसने कन्नौज के राजा यशोवर्मन को हराकर उसके राज्य के पश्चिमी भाग को छीन लिया कल्हड़ की राज तरंगिणी में उसकी विजय का विवरण मिलता है जिसके अनुसार कन्नौज पर विजय प्राप्त करने के अतिरिक्त उसने बंगाल, तुषार देश, दर्ददेश (आधुनिक कश्मीर का ऊपरी भाग) तथा भूटान और तिब्बत पर भी आक्रमण किया।
वह विजेता होने के साथ साथ कला प्रेमी शासक भी था। उसने कई मंदिर बनवाए जिनमें सूर्य को उद्दिष्ट मार्तंड मंदिर सबसे अधिक प्रसिद्ध था और आज भी विद्यमान हैं। ललितादित्य के साथ उसका पौत्र जयापीड इस वंश का अगला प्रतापी शासक हुआ। इसने भी मध्य प्रदेश, नेपाल और बंगाल पर आक्रमण किया राजतरंगिणी के अनुसार उसने 31 वर्ष तक शासन किया धीरे-धीरे वह वंश दुर्बल होता गया और अंत में नवी शताब्दी के मध्य में यहां उत्पल वंश स्थापित हुआ।
उत्पल वंश 939 ईसवी तक चला उत्पल वंश का अंत होने पर कश्मीर के ब्राह्मणों ने यसकर को राजा बनाया किंतु शीघ्र ही वह अपने मंत्री पर्वगुप्त द्वारा हटा दिया गया पर्वगुप्त कुल का सबसे प्रसिद्ध शासक सिद्ध हुआ । उसका पूरा शासन 59 वर्षों तक 950 से 1009 तक रहा।
कश्मीर के इतिहास में उसका शासनकाल एक भ्रष्ट शासन काल के रूप में भी याद किया जाता है अपने जीवन काल में ही उसने राज्य को एक लोहार वंश के अपने भतीजे संग्रामराज को दे दिया था। संग्राम राज एक दुर्बल शासक था और उसके बाद आने वाले शासक भी दुर्बल और अत्याचारी थे।
उन्होंने प्रजा पर शोषण के लिए तुर्क सेनापति रखे जो बाद में स्वयं उनके लिए बहुत घातक सिद्ध हुए। यह वंश किसी प्रकार 1339 ईस्वी तक टिका रहा ।
इसके बाद 1339 ईस्वी में यहां तुर्क (मुसलमान) सेनापति शाहगीर ने संसदीन या शमसुद्दीन की उपाधि धारण कर कश्मीर में मुस्लिम राज्य वंश की नींव डाली। 100 साल के अंदर अंदर धीरे-धीरे कश्मीर की जनता और ब्राह्मणों का धर्म परिवर्तन कर लिया गया और यहां मुस्लिम राजवंश जड़ पकड़ाता गया अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण यह अकबर के पहले तक सुरक्षित रहा 1587 ई. में यह मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया था।