चंद्रगुप्त मौर्य का इतिहास
चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म
चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा अपनी शक्ति अर्जित करना
जिस कारण उसका हाथ जल रहा था उसने कहा कि उसका व्यवहार चंद्रगुप्त की तरह है जिसने दूर के प्रदेशों को जीते बिना ही नंद शासक के राज्य के केंद्र पर आक्रमण किया और उसे हारना पड़ा। इस बात को सुनकर चंद्रगुप्त मौर्य को अपनी गलती का पता चला और उसने पहले किनारों के प्रदेशों को जीत कर फिर नंद सत्ता को हराया.
सेल्यूकस के साथ युद्ध
सिकंदर की मृत्यु के बाद उसका साम्राज्य उसके सेनापतियों में बट गया और उसके साम्राज्य का पूर्वी भाग सेल्यूकस को मिला सेल्यूकस ने पुनः भारतीय प्रदेशों पर विजय करनी चाहिए और पश्चिम के प्रदेशों में अपनी स्थिति मजबूत करने लगा और भारत की ओर आगे बढ़ा.
इस समय मगध राज्य की सीमा सिंधु नदी तक फैली हुई थी सेल्यूकस काबुल नदी के रास्ते से आगे बढ़ रहा था और लगभग 305 ई. पू. में उसने सिंधु नदी पार की किंतु इस समय इन प्रदेशों की राजनीतिक स्थिति सिकंदर के समय से अलग थी.
अब यह प्रदेश छोटे-छोटे राज्यों में बटा ना होकर चंद्रगुप्त जैसे कुशल तथा शक्तिशाली शासक द्वारा शासित हो रहा था जो इस प्रकार की किसी भी चुनौती का सफलतापूर्वक सामना करने में समर्थ था.
यूनानी और चंद्रगुप्त के बीच भीषण युद्ध हुआ जिसमें चंद्रगुप्त मौर्य विजय हो गया. युद्ध की शर्तों के अनुसार सेल्यूकस को अपने चार प्रांत चंद्रगुप्त को देने पड़े और उसके साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया बदले में चंद्रगुप्त ने उसे 500 हाथी उपहार में दिए इसके बाद दोनों में कूटनीतिक संबंध की स्थापना हुई जिसके परिणाम स्वरूप मेगास्थनीज नामक राजदूत चंद्रगुप्त के दरबार में आया.
चंद्रगुप्त मौर्य की भारत विजय
सेल्यूकस के साथ युद्ध के परिणाम स्वरूप चंद्रगुप्त मौर्य मगध तथा बंगाल से लेकर सिंधु प्रदेश तथा अफगानिस्तान तक के क्षेत्र का एक एक छत्र स्वामी बन गया अब मगध का राज्य सही अर्थों में साम्राज्य बन गया था और यह भारत की प्राकृतिक भौगोलिक सीमाओं को पार कर गया था चंद्रगुप्त मौर्य ने 600000 सैनिकों को लेकर भारत के अधिकांश क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया।
चंद्रगुप्त का व्यक्तिगत जीवन
चंद्रगुप्त मौर्य ने भारतीय अवधारणा के चक्रवर्ती के आदर्श को मूर्त रूप प्रदान किया उसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी. जहां वह संपूर्ण राजकीय ऐश्वर्य के साथ रहता था. उसका राज्य भव्य था जो मकदूनिया के सुसा तथा एक बटना के महलों से भी ज्यादा सुंदर बताते हैं।
यूनानी लेखक एलियन राज प्रसाद में कई राजकुमारों की चर्चा करता है जो अंदर बने तालाब में मछली का शिकार किया करते थे और नाव चलाना सीखा करते थे. राजा की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाता था .उसकी सुरक्षा के लिए स्त्री अंग रक्षकों की व्यवस्था थी.
चंद्रगुप्त मौर्य की मृत्यु
चंद्रगुप्त मौर्य ने 24 वर्षों तक शासन किया. इस प्रकार लगभग 300 ई.पू. में मृत्यु हो गई. जैन परंपरा के अनुसार अपने अंतिम दिनों में चंद्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था और वह राज्य को अपने पुत्र सिंहसेन को देकर साधु बन गया था और जैन साधु के रूप में मैसूर में श्रवण बेलगोला नामक स्थान पर उसकी मृत्यु हुई थी. 900 ई. के 2 लेखों में भद्रबाहु तथा चंद्रगुप्त का चंद्र गिरी पर्वत पर आने का उल्लेख मिलता है.
चंद्रगुप्त मौर्य का शासन
चंद्रगुप्त मौर्य के समय में पहली बार भारत में सही अर्थों में राजनीतिक एकता की स्थापना हुई छोटे-छोटे राज्यों के स्थान पर अब एक साम्राज्य अस्तित्व में आया. भारत में पहली बार बड़े मैं पैमाने पर प्रशासनिक केंद्रीय करण का प्रयोग किया .
कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा अशोक के अभिलेखों से पता चलता है कि राजा का आदर्श एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना था. अर्थशास्त्र में कहा गया है कि राजा को अपनी प्रजा में उसी प्रकार का भाव रखना चाहिए जैसा कि एक पिता का अपने पुत्र में होता है. अशोक भी अपने लेखों में कहता है कि लोगों के हित से बढ़कर कोई कर्म नहीं है और सारी प्रजा मेरी अपनी संतान की तरह है.
केंद्रीय शासन
राजा राज्य का प्रमुख था वह नियमों का उल्लंघन करने वालों को दंडित कर समाज में व्यवस्था बनाए रखना उसका प्रमुख दायित्व माना जाता था. मौर्य शासक देवताओं को प्रिय तथा (प्रियदर्शन) देखने में प्रिय उपाधियां धारण करते थे.
राजा के अधिकार असीमित थे और वह न्याय विधि तथा कार्यकारिणी सभी का प्रमुख था. चाणक्य के अनुसार राजा को कभी भी अपने पास अपनी बात कहने के लिए आए हुए लोगों को प्रतीक्षा नहीं करवानी चाहिए क्योंकि इससे जनता में असंतोष फैलता है. उससे लोगों की बातों को तुरंत सुनना चाहिए.
राजा के घूमने के लिए सुरक्षित जंगल थे. जिनके चारों ओर खाई थी और जिनमें नाखून और दांत निकाले हुए पशु रखे जाते थे राजा की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाता था . रानियों और राजपूत्र आदि सभी पर नजर रखने के लिए गुप्त चर नियुक्त होते थे .चंद्रगुप्त एक विशाल राज्य का स्वामी था और इसमें सुचारू शासन व्यवस्था के लिए एक कुशल प्रशासन तंत्र का होना आवश्यक था.
आचार्य चाणक्य ने लिखा है कि जैसे गाड़ी एक पहिए से नहीं चल सकता वैसे ही राज काज राजा अकेला नहीं चला सकता. इसके लिए उसे सहायकों की आवश्यकता होती है इसके लिए कई उच्च स्तरीय अधिकारी होते थे जिन्हें सचिव अथवा अमात्य कहा जाता था.
इन अधिकारियों में सबसे महत्वपूर्ण वह अधिकारी होते थे जिन्हें मंत्रि कहा जाता था. इन्हें महामात्र भी कहा जाता था. इन्हें उन अमात्य में से चुना जाता था जो सभी प्रकार से परीक्षित और शुद्ध होते थे. इन्हें राज्य में सबसे अधिक 48000 पण वार्षिक वेतन मिलता था.
इन मंत्रियों के अतिरिक्त राजा की एक अन्य मंत्री परिषद होता था. जो राजा को प्रशासन संबंधी सभी विषयों पर सलाह देते थे. सभी प्रकार के अमात्य में से मंत्री परिषद के सदस्यों को चुना जाता था. उनका वार्षिक वेतन 12000 पण था. इनके अतिरिक्त प्रशासन का कार्य कई विभागों में बटा हुआ होता था. इनकी देखभाल के लिए नियुक्त सर्वोच्च अधिकारी अमात्य को कौटिल्य अध्यक्ष कहता था.
इन्हें विभाग की आवश्यकता के अनुरूप भली-भांति परीक्षा करने के बाद नियुक्त किया जाता था .नियुक्ति के समय अधिकारियों की न्याय बुद्धि और खासकर नियुक्ति में यह ध्यान रखा जाता था कि वह घूसखोर ना हो और इसी प्रकार साहस की अपेक्षा रखने वाले विभागों में साहसी आदमी को रखा जाता था.अन्य अमात्य को सामान्य विभाग में रखा जाता था.
प्रांतीय शासन
प्रशासनिक सुविधा के लिए राज्य कई भागों में बटा हुआ था जिन पर राजा द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि शासन करते थे. चंद्रगुप्त के समय में प्रांतों की वास्तविक संख्या क्या थी यह कहा नहीं जा सकता किंतु उसके पुत्र अशोक के समय कम से कम पांच प्रांत थे.
- उत्तरा पथ
- अवंती
- दक्षिणापथ
- कलिंग
- प्राच्य
इनमें से प्रथम दो और अंतिम चंद्रगुप्त मौर्य के समय में भी निश्चित रूप से विद्यमान थे. दूर प्रांतों पर राजकुमारों को नियुक्त किया जाता था. इन्हें कुमार कहते थे. और इन्हें 12000 पण वार्षिक वेतन प्राप्त होता था. केंद्रीय प्रांत अर्थात प्राच्य पर राजा का सीधा नियंत्रण था. जिस पर वह अपने महामात्रों की सहायता से शासन करता था.
चंद्रगुप्त मौर्य का सैनिक संगठन
चंद्रगुप्त मौर्य के पास एक विशाल सेना थी .उसकी सेना में 600000 पैदल, 30000 घुड़सवार, 1000 हाथी और 8000 रथ थे. सेना की देखभाल एक परिषद के हाथ में था.
नगर शासन
- पहली समिति का कार्य उद्योग शिल्पों का निरीक्षण करना था .
- दूसरी समिति विदेशियों गतिविधियों का देखभाल करते थे तथा उनकी आवश्यकताओं का प्रबंध भी करते थे.
- तीसरे समिति का कार्य जन्म मरण का रजिस्ट्री करना था. इससे सरकार को जनसंख्या के विषय में निश्चित जानकारी होता था और कर वसूलने में आसानी होती थी.
- चौथी समिति व्यापार का देखभाल करते थे. यह विक्रय की वस्तुओं की जांच तथा दोषपूर्ण बंटवारे की जांच करते थे.
- पांचवी समिति कारखानों में हुए उत्पादन से संबंधित होता था और इस बात पर अनुशासन बनाए रखते थे कि इसमें दोषपूर्ण वस्तु का उत्पादन और वितरण ना हो.
- छठी समिति बिकी हुई वस्तुओं पर कर वसूल करते थे.
जनपद प्रशासन
दंड नीति
राज्य के आय के साधन
नगरों में गृह कर लगता था. राजकीय भूमि, जंगलों और खानों से होने वाला लाभ ,सीमाओं पर तथा नदियों के घाटों पर लगाई जाने वाली चुंगी .विक्रय की वस्तुओं पर लगाया गया कर . शिल्पियों से लिया जाने वाला शुल्क, दंडित लोगों से वसूला गया जुर्माना तथा संतानविहीन लोगों की संपत्ति राज्य द्वारा जब्ती आय के प्रमुख साधन थे। इस काल मे ब्राह्मणों और धार्मिक संस्थानों को कर मे छूट दिया जाता था ।
इस धन का उपयोग राजा, राज परिवार, तथा उसके दरबारी, सैनिकों के वेतन तथा राज्य की सुरक्षा, रजक्रमचरियों के वेतन, जन-सामान्य की आवशकताओं सड़के,पानी की व्यवस्था तथा धार्मिक संस्थानों को दान के लिए किया जाता था ।